COVID-19 Lockdown and Resilience: Narratives from the Ground
Location — Vashi Naka, Mumbai
Rani (name changed) is a 45-year-old woman living along with her two children in a rehabilitation and resettlement (R&R) colony in Vashi Naka, Mumbai. Her daughter is in the first year of her graduation and her son is in 8th standard. Rani’s husband is away since long and she works and raises her children single-handedly. Before the COVID-19 pandemic, she was working on a contract for housekeeping in a mall. Since the lockdown started, the mall has been closed and she hasn’t been able to work. Overnight, Rani has had no source of income to keep her household running. She asked her contractor to give her at least half of her salary during this lockdown but he refused saying that he himself got no money to give out to his staff as salary. The financial impact of the lockdown on the mall has been completely transferred to small contractual workers like her.
It has its ramifications. Rani, who already had no savings because of her low salary, now has no money for paying the fees for her children’s education. She also has no money for her medicines. Rani is a cancer survivor. Not long ago, she had surgery for the removal of cancer in her uterus. Not taking her medicines since she ran out of money has worsened her condition now. The diminishing public healthcare and its increasing privatization have rendered poor survivors like her helpless. For them, healthcare is not a ‘right’ anymore, it has become a ‘commodity’ that can be bought only if there is enough money to pay the market price.
Rani is living with her intensifying pain but what bothers her is that she cannot even feed her children well despite having a ration card, because the local ration shopkeeper is not giving her the full amount she is entitled to. She tried to complain to the police about this but was coldly told that they cannot intervene. The COVID-19 pandemic has overwhelmed systems and whatever little social security it offers to the poor is not even reaching them fully anymore.
Rani even tried to borrow informal loans which are usually at very high interest rates, however she couldn’t get any. A formal loan is out of her reach, it is mostly for those who already have money or collateral to show. The importance of cash is immense for women like her. No amount of ration can get her the medicines she needs. Her children’s education is almost like her pension investment that must not lapse. When we asked her what she wanted from the government, she didn’t ask for money, she asked for work so that she could earn again. She shared that this is what most of the women in her colony want — work, for being able to earn money. ‘They will earn some money only when they work. How will they get the money otherwise?’ she explained.
Contributed by Husna Khan, Manoj Gaikwad, Aayushi Bengani, and Sheeva Dubey who work with Youth for Unity and Voluntary Action (YUVA).
स्थान — वाशी नाका, मुंबई
रानी (बदला हुआ नाम) एक 45 वर्षीय महिला है, जो अपने दो बच्चों के साथ मुंबई के वाशी नाका में पुनर्वास (आर एंड आर) कॉलोनी में रहती है. उसकी बेटी अपने स्नातक के पहले वर्ष में है (13 वीं कक्षा) और उसका बेटा 8 वीं कक्षा में है. रानी का पति लंबे समय से दूर है और वह काम करती है और अपने बच्चों को अकेली पालती है. COVID-19 महामारी से पहले, वह एक मॉल में हाउसकीपिंग के लिए एक कॉन्ट्रैक्ट पर काम कर रही थी. लॉकडाउन शुरू होने के बाद से मॉल को बंद कर दिया गया और वह काम नहीं कर पा रही. रातभर में, रानी के पास अपने घर को चलाने के लिए कोई ज़रीया नहीं रहा. उसने अपने ठेकेदार को इस लॉकडाउन के दौरान उसे कम से कम आधा वेतन देने के लिए कहा, लेकिन उसने यह कहते हुए मना कर दिया कि उसके पास खुद अपने कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं हैं. मॉल पर तालाबंदी का वित्तीय पूरी तरह से रानी के जैसे छोटे सेवाकर्मीयों पर डाल दिया गया है.
इसके और दूसरे प्रभाव हैं. रानी, जिसके पास पहले से ही कम वेतन के कारण कोई बचत नहीं थी, अब उसके पास अपने बच्चों की शिक्षा के लिए शुल्क का भुगतान करने के लिए पैसे नहीं हैं. उसके पास अपनी दवाओं के लिए भी पैसे नहीं हैं. रानी को पहले कैंसर हो चुका है. कुछ समय पहले, उसने अपने गर्भाशय के कैंसर को हटाने के लिए सर्जरी करवाई थी. पैसे खत्म होने के बाद दवा नहीं मिलने से अब उसकी हालत खराब हो गई है. घटती हुई सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा और इसके बढ़ते निजीकरण ने रानी जैसे गरीब लोगों को और असहाय बना दिया है. उनके लिए, स्वास्थ्य सेवा अब उनका ‘हक’ नहीं है, यह एक ‘वस्तु’ बन गई है जिसे केवल तभी खरीदा जा सकता है जब बाजार में मूल्य का भुगतान करने के लिए पर्याप्त धन हो. रानी अपने दर्द के साथ जी रही है, लेकिन जो बात उसे परेशान करती है, वह यह है कि वह अपने बच्चों को राशन कार्ड होने के बावजूद भी अच्छी तरह से भोजन नहीं दे सकती है, क्योंकि स्थानीय राशन दुकानदार उन्हें पूरी राशि नहीं दे रहे हैं, जिसके वे हकदार हैं. उसने पुलिस से इस बारे में शिकायत करने की कोशिश की, लेकिन उसे यह बताया गया कि वे हस्तक्षेप नहीं कर सकते.
COVID-19 महामारी ने व्यवस्थाओं को चरमरा दिया है और गरीबों को जो कुछ भी सामाजिक सुरक्षा प्रदान करता है, वह पूरी तरह से उन तक नहीं पहुंच रहा है. रानी ने अनौपचारिक ऋण लेने की भी कोशिश की, जो आमतौर पर बहुत अधिक ब्याज दरों पर होता है, हालांकि उसे कुछ भी नहीं मिल पाया. एक औपचारिक ऋण उसकी पहुंच से बाहर है, यह ज्यादातर उन लोगों के लिए है जिनके पास पहले से ही पैसा है या गिरवी रखने के लिए कोई सम्पत्ति है. उसके जैसी महिलाओं के लिए पैसों का महत्व बहुत अधिक है. राशन की कोई भी मात्रा उसे उसकी ज़रूरत की दवा नहीं दे सकती. उसके बच्चों की शिक्षा लगभग उसके पेंशन निवेश की तरह है जिसमें चूक नहीं होनी चाहिए. जब हमने उससे पूछा कि वह सरकार से क्या चाहती है, तो उसने पैसे नहीं मांगे, उसने काम मांगा ताकि वह फिर से कमा सके. उसने कहा कि उसकी कॉलोनी की अधिकांश महिलाएँ काम करना चाहती हैं — पैसे कमाने में सक्षम होने के लिए. ‘वे कुछ पैसे तभी कमाएंगे जब वे काम करेंगे. उन्हें पैसा कैसे मिलेगा अन्यथा?’ उसने व्याख्या की.
हुस्ना खान, मनोज गायकवाड़, आयुषी बेंगानी, और शिवा दुबे का योगदान जो यूथ फॉर यूनिटी एंड वोलन्टरी ऐक्शन (YUVA) के साथ काम करते हैं. शुभांगी गुप्ता द्वारा अंग्रेजी से अनुवादित
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‘COVID-19 Lockdown and Resilience: Narratives from the Ground’ is a series through which we are showcasing community voices and experiences in lockdown, people’s resilience and the continued struggle for their rights. Stay tuned!