COVID-19 Lockdown and Resilience: Narratives from the Ground
Location — Ambujwadi, Mumbai
Nazar (name changed), a 35-year-old trans-woman, lives alone in Ambujwadi, an informal settlement in Malad. As a member of the Hijra community whose main source of income is derived from participating in a group that attends weddings and religious functions, the lockdown has left her with no choice but to stay home with no earnings.
For Nazar, the fear of being beaten up by the police has increased over the past few months. She recognises that staying home is a safety requirement of the pandemic and also believes that it would not be worth it to step out and face the risk of violence from the police. Despite experiencing the challenges of social distancing and fear of suffocation in her 10*10 home, she stays indoors as much as possible. She has expressed immense concern about how she will pay for electricity online and even had to ask for a concession on the payment of her water bills. Given the fear of food shortages, she has also had to stop eating breakfast. She is afraid that once the monsoon hits, her community will be completely devastated — living in the open, rebuilding their homes and struggling even more than they are right now.
A few days before the lockdown, Nazar’s mother passed away in Bihar. Until the day before the lockdown, she was in her village grappling with her mother’s demise. Just when she returned to Mumbai to start working and earning again, the city went into lockdown. The pandemic has only worsened her state of financial insecurity at a time when she had no savings because of the past month spent in her village. Since she has no land or source of income in the village, staying in the city and holding on to hope has been her only option. Her group’s ‘guru’, who was once a huge source of support for Nazar, passed away a few years ago.
Nazar highlights the need for relief efforts that are informed by the community’s knowledge and participation. She keenly observes the inequalities emerging in disaster-response initiatives within the community. She believes that the most vulnerable people continue to remain invisible in the eyes of the non-profits and the local government. She emphasises the fact that people only offer help to the people they know without focusing on who really needs to be helped the most. She recognises that even the ability to access support requires social connections or a certain kind of ‘smartness’, which isn’t commonly demonstrated by the people who get left behind. She urges the government to do their ‘duty’ and provide relevant support to the communities that vote for them.
As Nazar strives to cope with the disproportionate impact of the pandemic on her ability to survive, she remains insightful, disillusioned, hopeful and anxious, all at once.
As narrated to Alicia Tauro; written by Sneha Tatapudy.
स्थान — अंबुजवाड़ी, मलाड पश्चिम, मुंबई
35 वर्षीय ट्रांस महिला, नज़र (बदला हुआ नाम), अंबुजवाड़ी, मलाड में बस्ती में अकेली रहती हैं. ‘हिजड़ा’ समुदाय के सदस्य के रूप में जिनकी आय का मुख्य स्रोत शादियों और धार्मिक कार्यों में एक समूह के रूप में भाग लेने से आता है, लॉकडाउन ने उनके पास बिना किसी आय के घर पर रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा.
नज़र के लिए, पिछले कुछ महीनों में पुलिस द्वारा पिटाई की आशंका बढ़ गई है. वह मानती है कि घर में रहना महामारी से सुरक्षा के लिए आवश्यक है और यह भी विश्वास है कि ऐसे में बाहर निकल कर पुलिस की हिंसा का सामना करना उचित नहीं होगा. घुटन और सामाजिक दूरी का पालन करने में चुनौतियों के बावजूद, वह जितना हो सके अपने 10 * 10 फ़ीट के घर के अंदर रहती है. उसने इस बात पर बहुत चिंता व्यक्त की है कि वह ऑनलाइन बिजली का भुगतान कैसे करेगी और यहां तक कि उसे अपने पानी के बिलों के भुगतान पर भी रियायत मांगनी पड़ी. भोजन की कमी को देखते हुए, उसे नाश्ता खाने से भी रोकना पड़ा है. वह डरती है कि एक बार मानसून के आ जाने के बाद, उसका समुदाय पूरी तरह से तबाह हो जाएगा — खुले में रहना, अपने घरों का पुनर्निर्माण करना और अभी भी जितना वे कर रहे हैं उससे अधिक संघर्ष करना.
तालाबंदी के कुछ दिन पहले, नज़र की माँ का बिहार में निधन हो गया. लॉकडाउन से कुछ दिन पहले तक, वह अपनी माँ के निधन के कारण अपने गाँव में थी. बस जब वह फिर से काम और कमाई करने के लिए मुंबई लौटी, तो शहर लॉकडाउन में चला गया. महामारी ने उस समय उसकी आर्थिक असुरक्षा की स्थिति को और बदतर कर दिया क्योंकि पहले ही वो अपनी सारी बचत गाँव में ख़र्च कर चुकी थी. चूँकि उसके पास गाँव में कोई जमीन या आय का स्रोत नहीं है, इसलिए शहर में रहना और आशा रखना उसका एकमात्र विकल्प है. उनके समूह की ‘गुरु’, जो कभी नज़र के लिए समर्थन का एक बड़ा स्रोत थी, उनका भी कुछ साल पहले निधन हो गया.
नज़र ने समुदाय के ज्ञान और भागीदारी द्वारा सूचित राहत प्रयासों की आवश्यकता पर प्रकाश डाला है. वह समुदाय के भीतर ही इस आपदा के ख़िलाफ़ की प्रतिक्रिया को लेकर की गयी पहल में उभर रही असमानताओं को काफ़ी क़रीब से समझ रही हैं. वह मानती है कि गैर-लाभकारी और स्थानीय सरकार की नजर में सबसे कमजोर लोग अदृश्य बने हुए हैं. वह इस तथ्य पर जोर देती है कि लोग केवल उन लोगों को मदद की पेशकश करते हैं जिन्हें वे जानते हैं उनपर नहीं जिन्हें सच में आवश्यकता है. वह मानती हैं कि समर्थन तक पहुंचने के लिए सामाजिक कनेक्शन या एक निश्चित प्रकार की ‘स्मार्टनेस’ की आवश्यकता होती है, जो आमतौर पर पीछे छूट गए लोगों द्वारा प्रदर्शित नहीं की जाती है. वह सरकार से अपना ‘कर्तव्य’ निभाने का अनुरोध करती है और उन समुदायों को प्रासंगिक सहायता प्रदान करती है जो उन्हें वोट देते हैं.
जैसा कि नज़र महामारी के दुष्परिणामों के मध्य जीवित रहने का प्रयास कर रही हैं, इन दौरान वो चिंतित भी है, व्यावहारिक भी, निराश भी है, और आशावान भी.
एलिसिया टौरो और स्नेहा टाटापुडी का योगदान.अंकित झा द्वारा अंग्रेजी से अनुवादित.
‘COVID-19 Lockdown and Resilience: Narratives from the Ground’ is a series through which we are showcasing community voices and experiences in lockdown, people’s resilience and the continued struggle for their rights. Stay tuned!
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