COVID-19 Lockdown and Resilience: Narratives from the Ground
Location — Goni Nagar, Jogeshwari East, Mumbai
Chanda (name changed) lost her husband in 1992. Her daughter was 8-years-old at that time. Since then, Chanda started picking waste to make ends meet. She raised her daughter single-handedly and once she got her married and settled she felt relieved to be done with her responsibilities. However, her daughter’s husband turned out to be abusive and she left him after some years. Since then, Chanda and her daughter both have been working hard as waste pickers to raise the four children born from this marriage. The children are enrolled in the local municipal corporation school.
The coronavirus pandemic and the following lockdown completely disrupted the modest sustenance of Chanda’s family. Waste pickers, who are already one of the most deprived among all sanitation workers, have been among the worst affected. Their livelihood suddenly ended when they were neither allowed to pick waste nor were scrap dealer shops open anymore to buy these items. Since they do not have any employers they could turn to no one for salaries, advance payments or loans. Waste picking, which helps recycle about 20 percent of India’s waste, is not even considered legal in the country. It is then impossible for workers like Chanda and her daughter to get any social security from the government which could have helped them survive in such times.
The only dependable support for Chanda’s family during this crisis is the ration they get through their ration card. The Targeted Public Distribution System (TPDS) of the government is probably the widest social security scheme in urban India in terms of its coverage of the urban poor. Since the lockdown started, Chanda received the entire quota of ration that she was eligible for once, including the free ration promised under Pradhan Mantri Garib Kalyan Anna Yojana. However, she is eligible for ration only for two people. Chanda’s grandchildren’s names aren’t yet added to the ration cards. She has been to the concerned office 2–3 times but every time she has been told the same thing, that the government is not adding any new names to ration cards.
If not for the occasional charity of some non-profits, the family of six would be now surviving merely on the ration for two. And that is only if we assume that people feel only as much hunger as the ration quota decided for them by the government. Chanda doesn’t expect much from the government — ‘Even if they don’t give us anything else then also it is okay, but at least they should allow us to restart our work. Then everything will get better.’ She explained why the hurry. ‘The monsoon is going to start, we need to fix the roof over our heads’. She lives in a kutcha house and needs to buy some plastic sheets for cover.
The lockdown has affected her health as well. ‘Sitting at home the entire day causes me body ache. My hands and legs don’t move well now. They have become stiff. When I was working, they were better,’ said Chanda.
As narrated to Vijaya Babar, Namdeo Guldagad, and Shubhangi Kamble; written by Sheeva Dubey.
स्थान — गोनी नगर, जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई
1992 में चंदा (बदला हुआ नाम) ने अपने पति को खो दिया. उस समय उनकी बेटी 8 साल की थी. तब से, चंदा ने अपनी बेटी को पालने के लिए कूड़ा बीनना शुरू कर दिया. उसने अपनी बेटी की शादी करने और घर बसाने के लिए सब कुछ किया. उसने सोचा कि वह अपनी जिम्मेदारियों के साथ किया गया था. लेकिन यह पता चला कि उसकी बेटी एक अपमानजनक पति और घरेलू हिंसा का सामना कर रही थी. अपने पति से अलग होने के बाद से ,उसकी बेटी और वह, दोनों इस शादी से पैदा हुए चार बच्चों को पालने के लिए कूड़ा बीनने का काम कर रही हैं. बच्चों को स्थानीय नगर निगम स्कूल में नामांकित किया गया है.
कोरोनावायरस महामारी और लॉकडाउन ने चंदा के परिवार के जीविका को पूरी तरह से बाधित कर दिया. कचरा उठाने वाले, जो पहले से ही सभी स्वच्छता कार्यकर्ताओं में सबसे वंचित हैं, लॉकडाउन के दौरान सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं. उनकी आजीविका अचानक समाप्त हो गई जब उन्हें न तो कूड़े की तलाश में सड़कों पर घूमने की अनुमति दी गई और न ही कबाडीवालों को अपनी दुकानें खुली रखने की अनुमति दी गई. कचरा बीनने वालों के पास कोई नियोक्ता नहीं है जिनसे उन्हें वेतन, बयाना या ऋण मिल सकता है. कचरा उठाने वाले , जो भारत के 20 प्रतिशत कचरे के पुनरावृत्ति करने में मदद करते हैं, उनको देश में वैध नहीं माना जाता है. चंदा और उनकी बेटी जैसे श्रमिकों के लिए सरकार से कोई आर्थिक सुरक्षा प्राप्त करना असंभव है, जो उन्हें ऐसे समय को काटने में मदद कर सके.
इस संकट के दौरान चंदा के परिवार के लिए एकमात्र भरोसेमंद समर्थन उनके राशन कार्ड पर मिलने वाला राशन है. सरकार की लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टीपीडीएस) शहरी गरीबों के संदर्भ में शहरी भारत में संभवतः सबसे व्यापक सामाजिक सुरक्षा योजना है. लॉकडाउन शुरू होने के बाद, एक बार चंदा को राशन का पूरा कोटा मिल चुका है जिसकी वह पात्र थीं, जिसमें प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत मुफ्त राशन भी शामिल है. हालांकि, वह केवल दो लोगों के लिए राशन ले सकती है. राशन कार्ड में चंदा के बेटी के बच्चों का नाम अभी तक नहीं जोड़ा गया है. वह 2–3 बार संबंधित कार्यालय में गई. हर बार उसे एक ही बात कही जाती है, कि सरकार राशन कार्डों में नए नाम नहीं जोड़ रही है.
यदि कुछ खैराती संगठनों की तरफ से दान न मिलता , तो छह का परिवार अब केवल दो लोगों के राशन पर जीवित रहता. इसका मतलब कि चंदा के परिवार में प्रत्येक इन्सान के लिए केवल 1/3 हिस्सा भोजन, या कहें कि प्रत्येक परिवार के सदस्य के पेट का 2/3 हिस्सा हर समय खाली रहता. और यह केवल तभी है जब हम यह मान लेते हैं कि लोग केवल उतनी ही भूख महसूस करते हैं जितनी सरकार द्वारा तय किए गए राशन कोटे से पूरी हो सके. चंदा को सरकार से बहुत उम्मीद नहीं है — ‘भले ही वे हमें कुछ और नहीं देते हैं तो भी ठीक है, लेकिन कम से कम उन्हें हमें अपना काम फिर से शुरू करने की अनुमति देनी चाहिए. तब सब कुछ बेहतर हो जाएगा.’ उन्होंने बताया कि उनके जल्दीबाजी की वजह, ‘मानसून शुरू होने वाला है, हमें अपने सिर पर छत को ठीक करने की आवश्यकता है.’ और तब हमें एहसास हुआ कि वह एक कच्चे घर में रहती है और ढकने के लिए कुछ प्लास्टिक शीट खरीदने की जरूरत है.
लॉकडाउन ने उसके स्वास्थ्य को भी प्रभावित किया है. हमारे घर जितने छोटे होते हैं, लॉकडाउन के दौरान हमारा शारीरिक व्यायाम उतना ही कम होता है. ‘पूरे दिन घर पर बैठने से मुझे शरीर में दर्द होता है, मेरे हाथ और पैर अब अच्छे से नहीं चलते हैं. वे कड़े हो गए हैं. जब मैं काम कर रही थी, तो वे बेहतर थे’,चंदा ने शिकायत की.
विजया बाबर, नामदेव गुलदाग ,शीव दुबे और शुभांगी कांबले का योगदान. शुभांगी गुप्ता द्वारा अंग्रेजी से अनुवादित.
‘COVID-19 Lockdown and Resilience: Narratives from the Ground’ is a series through which we are showcasing community voices and experiences in lockdown, people’s resilience and the continued struggle for their rights. Stay tuned!
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