Skip to main content
GovernanceHabitatInformal WorkYUVA

यह शहर किनका है? इस शहर पर किसका अधिकार है? यह शहर कौन चला रहे है?

By January 27, 2022July 28th, 20232 Comments

मुंबई शहर को मौको को शहर कहा जाता है पर मौके के साथ यह शहर लेकर आता है कई सारी चुनौतिया| सामाजिक व्यवस्था हो या सरकारी यंत्रणा हो, सभी ने हमेशा से शहर को चलानेवाले श्रमिकों को हाशिये पर ही रखा है| फिर वो उनके घर हों, जो मुख्य शहर से कही दूर बसे होते है, या मुलभुत सुविधाए जो शहर में रहते हुए भी उनके पास पहुच नहीं पाती|

ऐसी ही ६ बस्तियों में अक्टूबर २०२० से एक प्रयास की शुरुवात हुयी| प्रयास, असंघटित बस्तियों में बसे श्रमिकों को अपने मुलभुत अधिकारों तक पहुचाने का|

मुंबई शहर में बसी श्रमिकों की ६ बस्तियां — कुरार विलेज — मालाड पूर्व में वनविभाग की जमीन पर बसी कच्चे मकानों की एक बस्ती, तुर्भे — नवी मुंबई जैसे सुनियोजित शहर में बसी एक बस्ती जो बंद पड़े खदानों के पास बसी है, गणपत पाटिल नगर — दहिसर पश्चिम में मेट्रो स्टेशन के निचे खाड़ी को लगकर बसी हुयी बस्ती, जहां सिर्फ एक रास्ता पार कर के दूसरी तरफ जाते ही देखने मिलती है बड़ी बड़ी, सुविधाओं से भरी इमारते, राठोडी — मालाड पश्चिम में खाड़ी के पास बसी हुयी बस्ती जो रिडेवलपमेंट और शहरी विकास के प्रकल्पों के बीच अपने अस्तित्व जूझ रही है, साठे नगर — मानखुर्द में डंपिंग ग्राउंड और एक बड़ी पुनर्विकसित कॉलोनी के बीच में बसी बस्ती, जिसका अपना एक इतिहास है और आखिर में वलई पाडा — नालासोपारा पूर्व में पहाड़ों के पास बसी बस्ती, जहा ना अभी तक सरकारी परिवहन पहुच पाया है ना सरकारी सुविधाए| देखने जाए तो यह सभी बस्तियाँ शहर की चकाचौंद से बाहर शहर के कोनो में बसी हुई है| कुछ पहड़ों के पास, कुछ समंदर के पास, जहा किसी भी नैसर्गिक आपत्ती का खतरा सब से ज्यादा होता है|

इन बस्तियों में रहने वाले काफी लोग देश के अलग अलग राज्यों से आये है, पर जिन जमीनों पर ये लोग रहते है वो सरकारी होने की वजह से या फिर वो जमीन उनकी न होने की वजह से इस शहर के नागरिक होने का कोई सबूत उन्हें आसानी से नहीं मिलता — मतलब रहते घर के पते पर किसी भी प्रकार का पहचान पत्र… जिस वजह से फिर इन लोगों को किसी भी प्रकार की मुलभुत सेवाए जैसे की पानी, देने से सरकारी यंत्रणा कतराती है, जब की ये लोग वही है जो इस शहर को चलाने के लिए दिन-रात काम करते है|

इनकी बस्तियों से थोडी ही दुरी पर और बस्तिया भी है जिन्हें ‘सोसाइटी’ कहा जाता है क्योंकि वहा मकान पक्के है और वहा के लोग जो काम करते है उसे ‘व्हाईट कालर’ काम कहा जाता है| उनमे से भी काफी लोग देश के अलग अलग राज्यों से आये है पर इनकी बस्तियों में सिर्फ मुलभुत सुविधाए ही नहीं बल्कि जरुरत से ज्यादा सुविधाए पहुचायी जाती है — जैसे की ‘डॉग पार्क’. सरकारी यंत्रणाए एक ही शहर में दो समूहों के साथ इस तरह का भेदभाव भरा व्यवहार करते हुए दिखाई देती है|

इस भेदभाव की दरार को कम करने की कोशिश में जुड़ने के लिए और लोगों का उनके मुलभुत अधिकारों से परिचय कराने के लिए, पहले लॉक डाउन के बाद ६ बस्तियों में अर्बन रिसोर्स सेंटर की प्रक्रियाए शुरू की गयी| जहां ना सिर्फ लोगों को उनके मुलभुत दस्तावेजों तक पहुचाने का काम शुरू किया गया पर लॉक डाउन के बाद राज्य तथा केंद्र सरकार ने जो योजनाये शहरी गरीबों और श्रमिकों के लिए तैयार की थी उनको सही लोगों तक पहुचाने का काम भी शुरू किया गया|

पहले लॉक डाउन की वजह से जिस समुदाय को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ था वो तबका शहरी श्रमिकों का था|इस शहर के लोग और सरकारी यंत्रणाए शहर को चलानेवाले इस समुदाय को सुरक्षित महसूस कराने में भारी मात्रा में नाकाम साबित हुई थी| उस बात की भरपाई करने के लिए फिर सरकारों ने उनके लिए कुछ योजनों की घोषणाये करना शुरू किया था, पर मुख्य मुद्दा था उन योजनाओं को उन लोगों तक पहुचाना जिनके लिए उन्हें बनाया गया था क्योंकि यह योजनाये आयी थी एलिजीबिलिटी क्राइटेरिया के साथ, जहां लोगों को इन योजनाओं का फायदा उठाने के लिए कुछ दस्तावेज दिखाने पड़ रहे थे| और दूसरी मुश्किल थी की इनमे से काफी योजनाओं तक पहुचने के लिए ऑनलाइन रजिस्टर करना पड़ रहा था|

इस दोनों चीजों को लेकर इन ६ बस्तियों में काफी लोग परेशानियों का सामना कर रहे थे| ऐसी परिस्थिती में युवा संस्था द्वारा चलाने जाने वाले ‘अर्बन रिसोर्स सेंटर’ से ना सिर्फ लोगों की सहायता की जाने लगी पर उसी के साथ हेल्थ और हायजिन को लेकर सत्रों का भी आयोजन किया गया, दुसरे लॉक डाउन के बाद लोगों को राशन की मदत भी की गयी, क्योंकि सरकारी राशन सभी लोगों तक पहुच नहीं पा रहा था|

इन सेंटर से कभी ऐसे लोगों के दस्तावेज बने जिनकी शहर में कोई पहचान नहीं थी और कभी असंघटित कामगारों को उनके काम से संबंधित वर्कर बोर्ड से जोड़ा गया|

जिस सेंटर और सेंटर से जुड़े लोगों को लेकर बस्ती के लोगों के मन में शंकाए थी वो सेंटर अब लोगों के लिए अपनी बाते रखने का एक मंच बन गए है| सेंटर की टीम का लोगों के साथ का रिश्ता और गहरा होता जा रहा है|

बस्ती के लोग न सिर्फ अपने दस्तावेज और योजनाओं से जुड़े कामों के लिए सेंटर पर आते है पर उनके अधिकारों को लेकर जिन सत्रों का आयोजन किया जाता है उनमे हिस्सा लेकर अपने अधिकारों को और बेहतर तरीकों से जानने की कोशिश करते है, जिस वजह से वो लोग जो कभी सरकारी अफसरों से बात करने में कतराते थे अब दफतरों में जाकर अपने अधिकारों के लिए उनसे बहस/मांग करने लगे है|

बस्ती के नगर सेवक भी अब लोगों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए दस्तावेजों के कामों में लोगों की मदत कर रहे है| यह वही लोग है जो शुरवाती तौर पर सेंटर के कामों में बाधाये लाने की कोशिशे कर रहे थे| सरकारी यंत्रणाए भी कभी बस्ती में आने को तैयार नहीं थी पर अब लोगों के साथ मिलकर पोस्ट ऑफिस जैसी यंत्रणाए बस्तियों में दस्तावेजों के और योजनाओं में लोगों का रजिस्ट्रेशन कराने के लिए कैंप लगा रही है|

इन ६ बस्तियों में यह परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू हो गयी है पर अभी जिस तरह की सफलता हासिल करने का सोच रहे है वहा तक हम नहीं पहुच पाए है| यह प्रक्रिया अगर दो समूहों के बीच की दरार को कम करने के लिए की जा रही है तो सिर्फ कुछ लोगों को मुलभुत दस्तावेजों और योजनाओं तक पहुचाने से यह संभव होनेवाला नहीं है|

अब तक इस प्रक्रिया अंतर्गत ४९३७ लोगों को उनके मुलभुत दस्तावेजों तक पहुचाने का काम किया गया है| ३०५८ सरकार द्वारा चलाई जानेवाली विविध कल्याणकारी योजनाओं के साथ जोड़ा गया है और असंघटित क्षेत्र में काम करनेवाले कामगारों को उनके काम से संबंधित वर्कर बोर्ड से जोड़कर उन्हें एक असंघटित मजदुर की पहचान दिलाने में और सरकारी योजनाओं से जोड़ने का काम किया गया है| इन ६ बस्तियों में लोगों के मुलभुत अधिकारों और मुलभुत सेवा-सुविधाओं के अधिकारों पर चर्चा करने के लिए ७७ जनजागृती सेशन भी आयोजित किये गए, जिस मे २२४३ से ज्यादा लोग शामिल हुए| कोरोना महामारी के समय में बस्ती के लोगों के स्वास्थ्य संबंधित प्रश्नों को लेकर बस्तियों में हेल्थ अवेयरनेस सेशन का आयोजन भी किया गया| इन बस्तियों में सरकारी आरोग्य सेवाओं का भी अभाव था जिसके रहते साल भर की इस प्रक्रिया में २३ हेल्थ कैम्प्स का भी आयोजन किया गया, जिस से हम १६४३ लोगों तक पहुच पाए| आय चेकअप से लेकर थेलिसिमैया और महिलाओं के साथ सरवाईकल कैंसर के चेकअप भी किये गए|

यह सभी प्रक्रियाए बस्तियों में चलाते समय कुछ चुनौतियों का सामना करना पडा है और कुछ सफलताये भी हासिल हुयी है| इन्ही सफलताओं से कुछ चुनी हुयी कहानिया इस श्रुंखला/सीरीज में वाचकों को पढ़ने के लिए साँझा कर रहे है|

इस कहानियों की श्रुंखला के पहले पहलू में हम ‘राशन कार्ड’ और उस राशन कार्ड पर गरीबों को मिलने वाले राशन के बारे में बात करेंगे| इस भाग में हम यह जानने की कोशिश करेंगे की राशन कार्ड जैसी योजना जिन लोगों को ध्यान में रखकर बनायी गयी थी, उन लोगों को अपने हक़ का राशनकार्ड या राशन लेने के लिए किन परिस्थतियों से गुजरना पडता है| कैसे लोगों तक जरूरी जानकारी पहुचाने से और अधिकारीयों को उनके काम से पुनह: परिचित कराने से लोग अपने अधिकारों तक पहुच सकते है इस प्रक्रिया को बताने की कोशिश की है|

दुसरे भाग में हम बस्तियों में काम करते वक़्त सरकारी यंत्रणाओ के साथ गटबंधन लोगों के लिए कितना हितकारक हो सकता है इसको समझने की कोशिश करेंगे| सरकारी यंत्रणाए अपनी सिमित संसाधनों की वजह से बस्ती के हर एक व्यक्ति तक नहीं पहुच पाती है| कभी कभी बस्ती के लोगों को लेकर उनके पूर्वाग्रह भी दूषित होते है जिसकी वजह से बस्ती की लोगों को एकही नजरिये से देखना और उनके साथ भेदभाव करने जैसी घटनाए भी सरकारी यंत्रणाओं द्वारा की जाती है| इन सब के चलते उन यंत्रणाओं से साथ चर्चा के माध्यम से और उन्हें बस्ती में ले जाकर किस तरह लोगों से जोड़ा जा सकता है इसके कुछ उत्तम उदाहरण इस भाग में साझे किये गए है| सरकारी यंत्रणाओ के साथ गटबंधन से लोगों के लिए कितने अवसर लेकर आ सकते है इसके बारे में यह कहानिया बात करती है|

तीसरे भाग में, एक छोटे से छोटा दस्तावेज लोगों को शहरों में अपने अस्तित्व को जताने के लिए और अपने अस्तित्व को बनाए राकहने के लिए कितना जरुरी है इसके बारे में बात की गयी है| जहा असंघटित बस्ती में अपनी पहचान ढूंडते हुए लोगों से लेकर असंघटित क्षेत्रों में काम करनेवाले मजदूरों की इस शहर में खुद की एक “मजदुर” कर के पहचान बनाने के लिए जो संघर्ष करना पडता है उसका एक पहलू बताने की कोशिश की है|

कोविड महामारी और पहले लॉकडाउन के बाद बस्तियों में बहुत गलतफैमिया थी| जिसकी वजह से बस्तियों में डर का माहोल भी था| लोगोंको किस जानकारी पर भरोसा रखना है और किस पर नहीं यह पता लगाने के लिए भी ज्यादा संसाधन नहीं थे| इस परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए बस्तियों में जनजागृती सत्र और हेल्थ कैंप का आयोजन किया गया| इस श्रृंखला के आखरी भाग में बस्तियों में इस तरह की गतिविधियों के आयोजन के लिए जो प्रयास लिए गए उनके बारे में बात की है| सरकारी यंत्रणाओ को स्वास्थ्य संबंधित सुविधाओं के लिए बस्तियों में लाने के लिए जो प्रयास किये गए, बस्ती की स्वास्थ्य संबंधित जरूरतों को ध्यान में रखकर दूसरी संस्था और सरकारी यंत्रणाओ के साथ गटबंधन कर के वो सुविधाए लोगों पहुचाने के लिए जो प्रयास इए गए और वैक्सीन को लेकर लोगों में जागरूकता करने के लिए जो प्रयास लिए गए उनकी संक्षिप्त कहानिया इस भाग में साझी को गयी है|

Rohan Chavan

2 Comments

Leave a Reply