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LivelihoodsNarrative Change

वसई-विरार में राहत व सहायता की कुछ कहानियाँ

By June 15, 2020December 23rd, 2023No Comments

एक वैश्विक महामारी और इसने हमारे जीवन को हमेशा के लिए बदल दिया है. हम सब जो भी करते हैं, जो भी बातें करते हैं, उसमें इसका ज़िक्र है. संक्रमण रोकने के लिए लॉकडाउन किया गया लेकिन इसकी वजह से नए ख़तरे पैदा हो गये, रोज़गार ख़त्म होना, पैसों की कमी, राशन का अभाव, बीमारी, और भूख. लॉकडाउन ने कुछ को तो सिर्फ़ घरों में बंद रहने को विवश किया लेकिन कुछ को तो बेसहारा कर दिया था. ऐसे में कई संस्थाओं, संगठनों और व्यक्तियों के अभूतपूर्व प्रयासों से कई काम हुए जो असम्भव से लगते थे.

ऐसी ही कुछ कहानियाँ हैं मुंबई महानगर क्षेत्र के ‘वसई-विरार’ की जिसमें एक व्यक्ति, एक समूह और बहुत सारे लोगों के सामूहिक प्रयास से असम्भव के विरुद्ध काम किए जा रहे हैं. ऐसी ही 5 कहानियों को पढ़ते हैं, मैकेंजी डाबरे की क़लम से.


लॉक डाउन में हमारे वसई के जो यूथ हैं, 18 से 20 यूथ, हर समय हमारे साथ रिलीफ़ में काम करने की कोशिश कर रहे हैं और इसमें काफी संस्था-संगठन सामने आकर हम लोग को मदद कर रहे हैं. युवा जैसे, किल विल जैसे संगठन सामने आए जिनकी वजह से हम लोगों तक पहुंच पाएँ. यदि वह लोग सामान नहीं देते तो हम इतने ढेर सारे लोगों तक नहीं पहुंच पाते. यह काम हमारा क़रीबन डेढ़ महीने से चल रहा है. हम लगातार कोशिश कर रहे थे कि जिनके पास राशन कार्ड नहीं है, जिनकी हालत बहुत खराब है, जो बहुत गरीब हैं, जिनके घर में मेडिकल के मुद्दे हैं ऐसे लोगों को ज्यादा से ज्यादा मदद कर पाए. हमें पता था कि हम लोग जो मदद करते है; जो हम लोग चावल देते हैं, तेल देते हैं, दाल देते है ज्यादा से ज्यादा यह उन परिवारों को 10–12 दिन के लिए ही उपयोग में आ सकता है. कम से कम 10–12 दिन तो उनको चिंता नहीं रहेगी यह सोचकर हम लोग काम कर रहे थे. और ऐसे में 10 मई के आसपास क़रीबन 2700 परिवार तक पहुंच पाए थे.

हमारी इसमें जो मुख्य भूमिका रही है जहाँ हम काम करते हैं, वहाँ का जो पर्यावरण है उसकी सुरक्षा करना. लॉक डाउन के समय हमारे ध्यान में आया था कि पूरा प्रशासन जो है वैसे भी वह पर्यावरण के बारे में इतने सीरियस नहीं है. पूरा प्रशासन जो है रिलीफ वर्क में, लोगों को कम्युनिटी किचन चलाने में, इन तरह की कामों में व्यस्त हैं और उसी का फायदा उठाते हुए वसई का जो 22 किलोमीटर लगभग का पूरा सी शोर एरिया है उसमें काफी मात्रा में मैंग्रोव में भराव चालू है, काफी मात्रा में मैंग्रोव जो है तोड़ रहे हैं. हम लोग भी पूरे रिलीफ़ वर्क में बिजी होने से हम लोग का भी अब तक इन सब चीजों पर ध्यान नहीं था क्योंकि पहले लॉक डाउन में सभी जो बीच है या टूरिस्ट स्पॉट हैं उन्हें लॉक किया गया था. इसलिए वहां तक ज्यादा ध्यान नहीं किया लेकिन एक दिन वहाँ के स्थानीय अकरम भाई का हमारे एक एक्टिविस्ट को फोन आया कि उनकी एरिया में काफी मात्रा में जो है 10 एकड़ से भी ज्यादा जगह वेट लैंड में जितने भी मैंग्रोव थे उसको काट कर के वहां पर फ्लैट ग्राउंड बना रहे हैं और 34 जेसीबी वहां लगातार काम कर रही हैं. अभी हम लोग रिलीफ काम तो कर रहे हैं लेकिन इस तरह से जो पर्यावरण को खतरा पैदा हो रहा है. तो हम लोग अपने आप को रोक नहीं सकते थे. कोरोना की वजह से, पूरे ग्लोबल वार्मिंग-क्लाइमेट चेंज की वजह से, जो असर है उसको कम लोग देखते हुए इस स्थिति में भी इंसान इस तरह की हरकतें कर सकता है जिस पर यकीन नहीं आ रहा था. हम लोगों ने तुरंत पुलिस और तहसीलदार को बताया लेकिन उन लोगों से ठीक जवाब नहीं आया. वो कह रहे थे कि हम लोग रिलीफ काम में हैं इन काम में फ़िलहाल नहीं आ सकते हैं.

हम यूथ ने सोचा कि चलो हमें ही जाकर कुछ करना पड़ेगा तुरंत हम उस गांव के लोग के साथ वहाँ गये और देखा सही में वहां पर ट्रैक्टर बुलडोजर से लगातार पूरी मैंग्रोव तोड़ रहे हैं. काफी मात्रा में पिछले 10–15 दिनों तोड़ा भी था और वहां पर पूरा ग्राउंड बना रहे थे. मैंग्रोव को पूरा खत्म कर रहे थे तो हम लोगों ने तुरंत जाकर बुलडोजर को और ट्रैक्टर को रोका और वहीं से पुलिस को फोन किया कि आप लोग स्पॉट पर तुरंत नहीं पहुंच जाओगे तो हंगामा हो सकता है. तुरंत पुलिस और वहां के तलाठी और सर्कल ऑफिसर वह वहां पर पहुंचे. हम लोगों ने उनके साथ बुलडोजर और ट्रैक्टर ज़ब्त किए और जिन लोगों के नाम से यह बुलडोजर और ट्रैक्टर थे उनके ऊपर केस दर्ज करने की कोशिश की. सुबह करीबन 12:30–1:00 बजे हम लोगों ने पुलिस प्रशासन द्वारा बुलडोजर ज़ब्त करवाया क्योंकि यह लोग बाद में पैसा लेकर ट्रैक्टर बुलडोजर छोड़ देते यह हमें पता था इसलिए पहली बार हम लोग रात 9:30 बजे तक रुके, पूरा केस, FIR दर्ज होने तक और जो भी संबंधित व्यक्ति उनको अरेस्ट करने वाले थे उनके आने तक, वह करके फिर पूरा जो प्रोसेस पूरा हो गया है. FIR हो गया, बुलडोजर ज़ब्त किया गया, जो लोगों ने कोशिश की थी उनके ऊपर भी केसेज़ हो गए, तब हम 9:30 बजे निकले.

पिछले डेढ़ महीने से हम लगातार जो काम कर रहे थे उसमें से एक दिन ऐसा आया कि फिर एक बार हमारे लोगों ने हमारे पर्यावरण का जो असली हमारा मकसद मूवमेंट है उसके बारे में याद दिलाया. काफी बुरा लगा कि इतना सुनहरा मौका हम लोगों को इस धरती ने अवसर दिया जो भी बदलाव हो रहे हैं उस बदलाव को फिर एक बार समझने के, इस धरती को कैसे हरा भरा रखते हैं उसके बारे में सोचने का. यहां पर कुछ लोग हैं जो सिर्फ थोड़े बहुत पैसों के लिए जिस तरह विनाश की प्रक्रिया कर रहे हैं और जिसकी वजह से चंद लोगों की वजह से जो पूरे इंसानियत पर ग्लोबल वार्मिंग का खतरा मंडरा रहा है यह देखकर काफी बुरा भी लग रहा था. ये देख के अच्छा भी लग रहा था कि इन लोगों ने उन लोगों को अच्छा सबक सिखाया. करीबन 60 से 70 लाख से ज्यादा के उनके बुलडोजर ट्रैक्टर ज़ब्त हुए इनके सबक मिलेगा तो ये देख के दूसरे लोग भी इस तरह से हरकत करने वाले हैं चौकन्ना होकर अपना काम रोकेंगे. कोरोना की इस परिस्थिति में भी हम लोगों ने पूरा जी जान से हमारी जो पर्यावरण बचाने की कोशिश है इसके ऊपर भी ध्यान दिया.


लॉकडाउन की वजह से काफी लोगों की नौकरी चली गई थी. काफी लोगों का रोजगार बंद होने के कारण उनका परिवार चलाने की दिक्कत, खाने-पीने की दिक्कत लोगों के सामने थी. लेकिन उसी के साथ एक बड़ी दिक्कत जो थी मेडीकल के मुद्दों को लेते हुए. काफी लोग जो है वह मुंबई में मेडीकल ट्रीटमेंट के लिए या उनके दवाई के लिएआते हैं और मुंबई के ऊपर काफी आश्रित हैं. जैसे ही लॉकडाउन होने की वजह से ट्रेनें बंद हो गई तो यहां से ट्रांसपोर्ट भी बंद जो मुंबई पर आश्रित थे. ऐसे में उन लोगों को ज्यादा मुश्किल हो रही थी जो कैंसर पेशेंट हैं जिनकी दवाई मुंबई से आती है. उन लोगों की तो हालत खराब थी. एक आदमी का फोन आया जिन्होंने बताया कि आपका नंबर हमें पता चला है, बताया गया कि आप लोगों को हेल्प करते हैं तो हमे भी आपसे हेल्प चाहिए थी. हमने उनसे पूछा कि क्या हेल्प कर सकते हैं और अगर सम्भव हुआ तो हम ज़रूर कोशिश करेंगे, आप बताओ. और उन्होंने बताया कि उनकी लड़की का ट्रीटमेंट जो है वो कोलाबा के एक हॉस्पिटल में चल रहा है. डॉक्टर ने 6 महीने का दवाई का कोर्स दिया है. डेढ़ महीने की दवाई शुरुआत में ही दी थीं. आज करीब 22 अप्रैल है और जो दवाई दी थी डॉक्टर ने वो खत्म हो गई है.

वह कोर्स चालू रखने के लिए उन्हें दवाई की ज़रूरत थी. तो किस तरह कोलाबा से हम दवाई ला सकते हैं? अब कोलाबा से दवाई लाना इतना आसान नहीं है ये हमें भी पता था. लेकिन कोशिश करने में क्या हर्ज है यह सोचते हुए मैं सोच रहा था कि किस तरह से हम इनकी हेल्प कर सकते हैं? तब पता चला था कि वसई से गवर्नमेंट स्टाफ को लेते हुए कुछ बसेस बोरिवली, चर्चगेट, दादर तक जाती है. तब उनसे जानकारी निकाल कर देखते है कुछ हो सकता है क्या. एस टी यूनियन के यहां के भरत पिंडारी को फोन किया कि मंत्रालय भी कोई बस जाती है क्या. पता चला कि नालासोपारा बस डेपो से 6:30 और शाम को दोपहर 3 से 4 बजे के बीच 2 बस मंत्रालय की ओर जाते हैं. मैंने उनसे बस का पूरा डिटेल ले लिया और ड्राइवर का भी डिटेल ले लिया फिर बस ड्राइवर से बात किया कि इस तरह से कुछ व्यवस्था होगी आप तक दवाई पहुंचाने की तो क्या आप मदद करोगे? तो ड्राइवर ने बोला कि वो तो हर रोज मंत्रालय जाता है, दवाई लेकर आने में उसे कुछ दिक्कत नहीं है. लेकिन बस छोड़ कर वो दवाई की दुकान तक नहीं जा सकता. क्योंकि वहां से 3 किलोमीटर दूरी पर है तो मैंने बताया कि नो प्रॉब्लम आप कम से कम जब कोई मुझे इस तरह से कनेक्शन मिलेगा आप दवाई ले लेना आपके पास रखना, नालासोपारा में आकर आप से ले सकते हैं. अब यहां से मंत्रालय तक तो जाने वाली बस मिल गई. अब दवाई कैसे लाएंगे? तो फिर एक बार मैंने हमारा यूनियन का कार्यकर्ता अशोक कुट्टी को फोन किया और उनसे पूछा कि क्या इस तरह से कोई हेल्प कर सकता है क्या उन्होंने मुझे रकेश कर के एक धोबी का नंबर दिया. मैंने राकेश भाई को फोन किया उनको पूरा हकीकत बताया.

थोड़ा उन्होंने अपने बारे में बताया कि वैसे भी लोगों के डर की वजह से हमारे रोजगार पूरा खत्म ही हुआ है और हम कुछ भी नहीं कर पा रहे लेकिन किसी की जिंदगी को बचा सकते हो तो मैं इस काम को ना नहीं बोलूंगा. राकेश के शब्द सुन के हमें काफी अच्छा लगा. मैंने तुरंत डॉक्टर का एड्रेस ले लिया और राकेश को दे दिया. उसे बताया कि डॉक्टर का क्लीनिक लॉकडाउन की वजह से शाम को 4:00 से 6:00 के बीच में खुला रहता है तो आप दवाई ले लेना और दूसरे दिन सुबह मैं आपको बस ड्राइवर की डिटेल दे दूंगा. सुबह आप जा के उनको दे देना. मुझे राकेश पर काफ़ी गर्व लग रहा था कि राकेश को पैदल आधा किलोमीटर चल के कोलाबा में डॉक्टर से दवाई लेना था और दूसरे दिन 2 किलोमीटर के आसपास चल के आना था मंत्रालय तक और दवाई देना था.ना मैं राकेश को जानता था ना राकेश मुझे जानता था. फिर भी राकेश ने जिस तरह से अगवापन दिखाया तो मुझे बहुत अच्छा लगा कि इंसानियत अभी तक किस तरह से जिंदा है कि फोन पे जिन से बात हुई है जो एक दूसरे को जानते नहीं लेकिन एक दूसरे के काम के लिए अपना पूरा समय देने के लिए तैयार है तो काफी अच्छा लगा मैंने फिर जिन के लिए दवाई चाहिये थी उनके पिताजी को बताया आप डॉक्टर के अकाउंट में पैसा डालो और राकेश वहां जाकर दवाई लेगा और जैसा हम लोग ने सोचा था वैसा ही राकेश ने एक दिन शाम को जाकर दवाई लेकर मुझे बताया कि दवाई उसके हाथ में आई है सुबह ड्राइवर को पहले ही सूचना दे रखी थी तो बस मंत्रालय के गेट पे खड़ी होगी, 9:15 बजे के आस पास बस पहुंचने वाली थी राकेश वहां पर सुबह 8:45 बजे से ही दवाई लेकर खड़ा था और करीबन 9:30 के आसपास बस पहुंच गई. राकेश ने उनके पास दवाई दे दी. वहां से छूटने के बाद करीबन 12:30 से 1 बजे के बीच नालासोपारा पहुंच गई. ड्राइवर ने मुझे फोन किया मैंने तुरंत जाकर दवाई ले लिया. जिन लड़की को दवाई चाहिए था उनके घर पहुंचाया “बस मैं अगर इस पूरे काम को न बोलता और कहता कि सब लॉक डाउन में बंद है और कोशिश ही नहीं करता तो शायद उनको दवाई नहीं मिल सकती थी.

लेकिन 2 दिन के भीतर ही जब हमने कोशिश की तो रास्ता मिल गया और जिन लोगों को दवाई चाहिए थीं उनको दवाई भी मिल गई मुझे राकेश जैसा अच्छा दोस्त मिला और पता भी चला कि इस तरह से बसेस जाती हैं तो हम काफी लोगों को इस तरह से मदद कर सकते हैं इस लॉक डाउन में इंसानियत का एक अलग सा चेहरा भी दिखाया और हम लोगों को सिर्फ मदद कर रहे कर के ही नहीं किस तरह से तकलीफ़ लोगों को हो सकती है उसका भी एक नया पहलू जो है वो हर दिन हमारे सामने अलग अलग अंदाज़ में आ रहे थे.


3 अप्रेल को युवा संस्था के लेबर हेल्प लाइन से यह जानकारी आयी कि नायगांव में संटेक करके एक साइट है वहां से मोहमद भाई का फोन आया था. वो लोग पिछले 2 दिन से भूखे है और खाना ना मिलने की को वजह से उनका काफी हालत ख़राब हो रहा है यहाँ तक कि ठेकेदार ने भी उनके ऊपर धयान नहीं दिया है उन लोगों के लिए कुछ हो सकता है क्या.

मैंने युवा संस्था के हेल्प लाइन नम्बर से मोहम्मद भाई का नंबर ले लिया. 3-4 बार फोन ट्राई किया पर फोन नहीं लग रहा था और आख़िरकार दोपहर के 2 बजे के करीब मोहम्मद भाई का फोन आया. मैंने जब मोहम्मद भाई से जानकारी लेने की कोशिश की तो पता चला संटेक नायगांव में काफी बड़ा एक हाउजिंग रेसीडेंशल काम्प्लेक्स बन रहा है और जिसमे करीब 305 लोग फेज़ 1 में काम करते है, जिसमे ज्यादातर छत्तीसगढ़, झाड़खंड, उड़ीसा और वेस्ट बंगाल के लोग काम कर रहे हैं. उनसे ये भी पता चला कि फेस 2 और फेस 3 में करीबन लगभग उतने ही 300–400 लोग काम करते हैं. इन सब की हालत खराब है पिछले 5 दिन से ठेकेदार ने यहाँ आने की कोशिश तक नहीं की. कोरोना की डर की वजह से बिल्डर कौन है ये उनको पता नहीं, आजु-बाजु में कोई भी दूकान नहीं है. जो दूकान हैं भी तो लॉकडाउन की वजह से सब बंद है, और ऐसे में थोड़ा बहुत जो घर में राशन था तो वो पूरा ख़तम हो गया है. ये पुरे पुरुष है जो सिंगल मायग्रंट कर के यहाँ आये है और पिछले 2 साल से इस साइट पे वो काम कर रहे थे.

पिछले 2 दिन से इनके पास कुछ भी खाने के लिए ना होने की वजह से इनकी हालत काफी ख़राब है और भूख से उनकी हालत और खराब हो रही थी. मोहम्मद भाई ने बताया कि अब जल्द से जल्द कुछ नहीं किया तो शायद वहां भूखमरी हो सकती है. जब मैं फोन से बात कर रहा था उनके बोलने से ये लग रहा था काफी थके हुए, काफी डरे हुए भी है और वहां के बिल्डर और 2 कॉन्टेक्टर है वो अपने मजदूर को इस तरह से छोड़ के भाग गये है. बिल्डर तो मुंबई के है, ठेकेदार जो यहाँ के थे उनका ये कहना था के बिल्डर से पैसा नहीं मिला है तो हमलोग आपको कुछ हेल्प नहीं कर सकते. जैसे ही ये बात मुझे युवा संस्था से पता चला मैंने तुरंत यहाँ के जो तहसीलदार हैं, यहाँ के जो एस. डी. ओ. हैं उनसे बात किया और कलेक्टर ऑफिस में डेप्युटी कलेक्टर से बात किया और उनको बताया के इन कामगारों को अगर कुछ हो गया तो आप लोग इनके जिम्मेदार होगे. जल्द से जल्द आपको इन कामगारों के बारे में सोचना पड़ेगा. मैंने यहाँ के समाज सेवी संगठन के नेता तथा हमारे जन आंदोलन के लीडर विवेक पंडितजी को भी ये बताया उन्होंने तुरंत कलेक्टर को और यहाँ के जो एस. डी. ओ. और तहसीलदार, पुलिस ऑफिसर को कॉल किया और तुरंत इन कामगारों का हेल्प करने का बताया. दोपहर के 2 बजे मुझे मोहम्मद भाई का फोन आया. मैंने फिर मोहम्मद भाई को 1-2 बार फोन कर के हौसला दिया कि आज के दिन तक आपका कुछ हो जायेगा आप चिंता मत कीजिए.

साथ में मैंने वहां के जो 3–4 एक्टिविसट थे उनको तुरंत वहां पे परिस्थिति क्या है वो देखने के लिए भेजा. उनसे भी पता चला शाम को 5- 5.15 बजे तक कि उनकी तबियत काफी खराब है. वहां की परिस्थिति भी बेहद खराब है. लोगों के पास खाने कुछ नहीं है, और लोग अभी इसी चिंता में है कि क्या हम घर पहुँच पाएंगे, कुछ खाने को मिलेगा, क्या हम जिन्दा रहेंगे. शाम को करीब 6.30 के करीब मुझे मोहम्मद भाई का फोन आया वो काफी ख़ुशी से बात कर रहे थे कि यहाँ के जो SDO और तहसीलदार है वो स्पॉट पर आये थे, उन्होंने वही से बिल्डर और कॉन्टेक्टर को फोन किया और वही से तुरंत ठेकेदार जो है साइट पे भाग कर आ गया. ठेकेदार ने हर कामगार को 3000 रूपये दिया और आज रात से ही उन सब की कम्युनिटी किचन बिल्डर की ओर से चलाने की बात की. सभी कामगार फेज 1, फेज 2, फेज 3 कुल मिला के वहां जो 650 के करीब जो भी वर्कर थे उन सबको खाना और इस तरह से पैसा मिल गया.

उसके बाद मैंने लगातार 3 दिन मोहम्मद भाई से सुबह और शाम ऐसा फोन पे सही में खाना मिल रहा है या नहीं, सही में उनका जो दिक्कत था वो ख़तम हो गया क्या वो कोशिश की तो मोहम्मद भाई से पता चला की अब घर कब जा सकते है पता नहीं लेकिन कम से कम सुबह और शाम दो टाइम का खाना तो यहाँ मिल रहा है और कुछ पैसा भी मिला है. अगर कुछ दूकान खुल जाता है तो उससे कुछ ले सकते है और साथ में वहां पे किसी को जो बीमार एक डाक्टर आके उनका चेकअप करके भी गये हैं.

मुझे भी काफी अच्छा लगा कि युवा के हेल्प लाइन से एक नंबर मिला, मोहम्मद भाई की वजह से करीब 650 लोगो को सिर्फ खाना ही नहीं मिली हम उनकी जिंदगी बचा पाए. अगर मोह्हमद भाई का नंबर अगर युवा को पास कहीं से नहीं मिलता तो वो लोग किसी के पास नहीं पहुंच रहे थे तो ऐसे सुनसान जगह पर कॉम्प्लेक्स बन रहे बड़ा उन जगहों पर नहीं कोई हेल्प करने वाले लोग थे, न कोई हेल्प ले सकते थे. लेकिन आखिरकार मौहम्मद भाई युवा की वजह से इन सब लोगों को एक राहत मिली काफी अच्छा लगा कि हम इन सब लोगों के काम आ पाए.


9 अप्रैल की सुबह मुझे युवा की एक पुरानी साथी, सबा खान का फोन आया कि बाबू जादव नाम का एक लड़का आपको फ़ोन करेगा. उनकी पत्नी गर्भवती हैं और काफी दिक्कत में है. आप उनको हेल्प करेंगे तो अच्छा होगा. तो मैंने भी बताया कि ठीक है मेरा नम्बर दे दो, मैं बाबु से बात करता हूँ. लगभग आधे घंटे में ही बाबू ने मुझे फ़ोन किया. बाबू जादव जो मुंबई के आज़ाद मैदान के बाजु में रहता था और वही उसे एक मुस्लिम लड़की से प्यार हो गया जिसका का नाम अंजली है. बाबू और अंजली ने शादी करने का फैसला किया लेकिन दोनों घर के लोगों का थोड़ा विरोध होने के कारण बाबू आज़ाद मैदान का अपना झोपड़ा छोड़ के विरार के फूलपाड़ा एरिया में रहने के लिए आ गया.

पिछले 3 साल से बाबू वहां पे रह रहा है. बाबू का 2 साल का एक लड़का भी है. वो, उसकी पत्नी और लड़का अभी विरार में रहते हैं. बाबू एक छोटी कम्पनी में कारीगरी का काम करता है. उनका फैमिली जो है वो काफी खुशहाली से जी रहा था. अब लॉकडाउन की वजह से उनकी पत्नी जो गर्भवती थी और कामा हॉस्पिटल में उसका ट्रीटमेंट चल रहा था. उसकी प्रेगनेंसी में ये पता चला कि उसके पेट में कुछ जगह पर गाठिया है और हर्निया का भी उसको तकलीफ है तो उसका जो ऑपरेशन है कामा हॉस्पिटल में ही करना पड़ेगा इसलिए ही वो कामा में ही पूरा ट्रीटमेंट ले रहे थे. लॉकडाउन के दौरान ही नौवाँ महीना शुरू हो गया था और 2 बार वो लोग चेकिंग के लिए नहीं जा पाए.

9 अप्रैल को जिस दिन मुझे फ़ोन आया उस दिन उसकी पत्नी की तबियत बेहद खराब थी. उसके पेट में काफी पेन हो रहा था. बाबु ने जैसे ही मुझे फ़ोन किया तो मैंने उनसे पूछा कि आपने वसई के किसी डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाया? तो उनसे पता चला कि यहाँ पर सब लॉक डाउन है. इस तरह का ट्रीटमेंट यहाँ पे होगा हमें पता नहीं इसलिए हम लोगों ने सोचा कि जैसा ही थोड़ा मौका मिलेगा मुंबई में जा के इसका चेकअप करवा के आगे की प्रक्रिया कर सकते हैं. लेकिन अभी इतना दर्द है कि सहन नहीं कर पा रही है. मैंने तुरंत हमारे जो दोस्त विरार में रहते हैं प्रशांत काम्बले को फ़ोन किया और कहा की कुछ भी करो तुरंत बाबु के घर पे पहुँचों और उसकी पत्नी को आप सर्वोदय हॉस्पिटल में लेकर आओ. मैं डॉक्टर से बात करके रखता हूँ. प्रशांत तुरंत गाडी निकाल के बाबु के यहाँ पहुंचा उसने उसकी पत्नी को और बाबू को गाडी में बिठा के तुरंत सर्वोदय हॉस्पिटल में गये जहाँ पहले से ही हमारे कार्यकर्त्ता मौजूद थे.

प्रशांत ने डॉ. के साथ बात किया. तब डॉ. ने भी बताया कि इन लोगों ने भी करीबन एक महीने से चेकिंग ठीक से किया नहीं है और इस तरह दर्द को नवे महीने में ध्यान नहीं देना अच्छी बात नहीं है. इनको तुरंत हॉस्पिटलाइज करना होगा। लेकिन जब इन्होने बताया कि लॉकडाउन है और इस तरह से जाने में काफी परमिशन लगती है तब वहाँ के डॉ. ने ही कुछ दवाई दे दी. उन्होंने बताया मई महीने के पहले वीक में ही इनका डेट है तो उस हिसाब से आप लोग ध्यान रखो कि ज़्यादा दर्द हुआ तो इनको एडमिट करना होगा और कुछ दवाई दे के और कुछ चेकिंग कर के इन लोगों को भेज दिया.

मैंने बाबू से बात किया कि क्या हम लोग अभी से आपकी पत्नी को मुंबई में जाके रखें क्या? बाबु ने कहा मुंबई में कहाँ रखेंगे मुंबई में जो लोग हैं उनसे हमारे इतना अच्छा सम्बन्ध नहीं है और मुंबई में रखेंगे तो खर्चा बढ़ जायेगा और मुश्किल हो जाएगा. अब क्योंकि डेट पहले वीक बताया है तो हम लोग आपकी मदद से 4–5 दिन पहले इनको लेके जाएँगे. बाबु के घर पे हम लोगों ने कुछ राशन भेज दिया ताकि उनकी पत्नी को थोड़ा अच्छा खाने को मिले. जूस-फल और ताक़त देने वाले जो भी पाउडर होते हैं उस तरह की चीज़ें हमने उन्हें भेज दिया ताकि वो थोड़ा सा ठीक ठाक रह सके. करीब 21 अप्रैल को बाबु का सुबह-सुबह मुझे फ़ोन आया कि 7 बजे फिर से पत्नी की तबियत बिगड़ी हुई है. उसको अब शायद हॉस्पिटलाइज करना पड़ेगा तो मैंने तुरंत एम्बुलेंस को फ़ोन किया. और एम्बुलेंस उनके घर पे भेजा. लेकिन बाबू ने पहले ही बता दिया कि हमें सीधा मुंबई जाना है तो एम्बुलेंस वाले ने कहा कि हम मुंबई तो नहीं जा सकते और उसने केंसिल किया.

मैने बाबू को थोड़ा डाँटा कि पहले होस्पिटलाइज़ करते तो हॉस्पिटल वाले ही बोलते की मुंबई जाना पड़ेगा और वहीँ से वो ही एम्बुलेंस आपको लेकर जा सकती थी. तो फिर मैंने दुसरे एम्बुलेंस को फ़ोन करने ही वाला था एम्बुलेंस के जो ड्राइवर थे उनको 2 हज़ार रूपये देने का वादा किया तो वो तैयार हो गया. कामा हॉस्पिटल ले जाने के लिए बाबू की पत्नी को तुरंत कामा हॉस्पिटल में ले के गये करीब सुबह 11 बजे के आस-पास वो लोग कामा हॉस्पिटल में पहुंचे और मैं फिर मेरे पूरे दिन के काम में बिज़ी हो गया. शाम को 6.30 बजे बाबू का फ़ोन आया कि उसे लड़की हुई है, हम लोग मामा बन गए. हम सब में तो ख़ुशी की लहर उठ गई कि चलो अब हमारी वजह से बाबू और उनका परिवार में ख़ुशी तो आया. वो समय पर हॉस्पिटलाइज हो पाई जिसके कारण दोनों की जान भी बच गई. हमारे साथ जो काम करने वाले कार्यकर्त्ता हैं, उनको भी अच्छा लगा कि हम इस लॉकडाउन में किसी का जान बचा पाए. ऐसे ही तीन दिन निकल गए, फिर बाबु का फ़ोन आ गया कि डिस्चार्ज लेना पड़ेगा और हमारे पास पैसा और इस तरह कि व्यवस्था भी नहीं कि इनको हम लोग मुंबई से ला सकते हैं. मैंने मुंबई के हमारे जो अशोक कुट्टी हैं यूनियन के कार्यकर्त्ता उनको बताया कि इस तरह से है कैसे गाडी का व्यवस्था हो सकती है? तो उन्होंने हमें एक दो टैक्सी ड्राइवर के नम्बर दिए और फिर उनके साथ बात करने के बाद पता चला कि फिर सार्टीफिकेट लगेंगे. परमिशन के लिए हम लोगों ने फिर डॉ. से बात करवा के उस तरह से टैक्सी ड्राइवर और उनका न. डाल के परमिशन लेटर तैयार किया और इन पूरी प्रोसेस में करीबन शाम के साढ़े 7–8 बज गये और फिर टैक्सी ले के इन लोगों को उनके विरार के घर पे ले के आ गये. करीबन रात को 10.30 के आस पास उनकी गाडी पहुँच गई. ड्राइवर को, क्योंकि बाबू के पास पैसा नहीं था, हम लोगों ने टेक्सी का जो भाडा है वो दे दिया.

बाबू के घर में आने वाले 2 महीने तक हो सके इतना राशन भी दे दिया. परिवार में काफी ख़ुशी का माहौल था कि इस लॉक डाउन में जो भी उनको जो भी अनपेक्षित मदद मिली थी और इस सब के वजह से उनकी पत्नी की जान तो बची थी. लेकिन घर में नन्हीं परी भी आई थी और साथ में उनके हॉस्पिटल के खर्चे के साथ साथ घर का जो भी जब तक लॉक डाउन चल रहा है तब तक 2–3 महीने का खाने का भी सवाल है वो भी हल हुआ था. इसलिए बाबू को भी काफी ख़ुशी हुई थी. हमें भी काफी अच्छा लगा कि हम इस लॉकडाउन में ये हमारा पहला अनुभव था कि हम लोग मेडिकल हेल्प कर के किसी की जान बचा पाए हैं.


वसई-विरार मुंबई महानगर क्षेत्र का सबसे तेज़ी से डेवलप होता हुआ हिस्सा है. जहां रोज़ हज़ारों बिल्डिंग बनती हैं, हज़ारों लोग यहाँ पे रहने के लिए आते हैं. ऐसे शहर निर्माण में वसई के बाजू के जो ब्लॉक्स हैं, तालुका हैं, ख़ास तरह से तलासरी, दहाणु, विक्रमगढ़, जवाहर और पालघर यहाँ से हर साल हजारों की मात्रा में आदिवासी कंस्ट्रक्शन तथा खेती करने के लिए नवम्बर महीने से ले के मई महीने तक ऐसे 6–7 महीने के लिए यहाँ आते हैं. इस साल भी नवम्बर के बाद दिवाली के बाद काफी संख्या में यहाँ पे आदिवासी मजदूर आए और वो अपना जो काम है वो काम कर रहे थे. जैसे ही 24 तारिख को लॉकडाउन की घोषणा हुई, 24 मार्च से इन सबकी तकलीफ चालू हो गयी.

24 मार्च को ये लॉकडाउन होने के बाद इन आदिवासियों को कुछ काम नहीं था और इनके पास कुछ पैसा भी नहीं था. क्योंकि ये डेली वेज़ेस पे काम करने वाले लोग हैं तो हमें लगा उनको राशन दे के कुछ मदद करना चाहिए. इसलिए निर्मल, ग्रीस, घास और बुलगाँव के जो भी माईग्रेंट हुए आदिवासी हैं उनको धन देने का राशन देने का सोचा और हम लोगों ने सोचा और हमारे एरिया के जो यूथ हैं उन्होंने कुछ पैसा निकाला और कम से कम इनको 10–12 दिन का राशन मिल सके इसकी व्यवस्था की. जिस दिन हम इस क्षेत्र में राशन देने को गये तो लोग काफी डरे हुए थे. उनका कहना था कि यहाँ पे कुछ काम धंधा नहीं है. साथ में ये जो बीमारी है जिस बीमारी के बारे में, कोरोना के बारे में ठीक से पता भी नहीं था इस बिमारी की वजह से लोग हमें दूर रखते हैं. हमें कुएँ का पानी तक भरने की हमें अनुमति नहीं है और यहाँ रहेंगे तो हम लोग कुछ खा नहीं पाएँगे क्योंकि हमारा राशनकार्ड और बाकि चीज़े गाँव में हैं तो यहाँ हम कैसे जिंदा रहेंगे? तो आप राशन दे रहे हो काफी अच्छा है लेकिन कुछ भी करो लेकिन यहाँ से हमें गाँव भेजने की व्यवस्था की जाए.

बुलगाँव, निर्मल, गास और ग्रीस के ऐसे करीब 160 लोगों के हमारे पास लिस्ट आ गई जो लोग गाँव जाना चाहते थे. ऐसे 10–15 ही परिवार थे उन लोगों ने बताया हम गाँव नहीं जायेंगे इधर ही रहेंगे. जो छोटा-मोटा काम है वो करेंगे क्योंकि गाँव में भी वैसा कुछ रोज़गार नहीं हैं. अब इन लोगों को गाँव भेजना है तो काफी बड़ा मुश्किल है ये हमें पता था ख़ासकर जब पूरे वसई में धारा 144 लगा था और साथ में कर्फ्यू और लॉक डाउन की वजह से पूरा सिस्टम ही बंद कर के रखा था. अब ये लोग तो रो रहे थे दूसरे दिन भी जब हम उनको मिलने गये तो भी उनका कहना था कुछ भी करो हमें यहाँ से ले के जाओ. अब फिर हम लोगों ने सोचा कोशिश करके देखते हैं. हम लोगों ने यहाँ के प्रशासन खासतौर से तहसीलदार से बात की. उन्होंने बताया हाँ, ये आदिवासी यहाँ पे फंसे हुए हैं लेकिन ये लॉक डाउन की वजह से हम किसी को बाहर जाने की अनुमति नहीं दे सकते. उसके साथ पुलिस इन्स्पेक्टर के साथ बात किया उन्होंने भी वही बताया. पुलिस डी. एस. पी. के साथ बात किया उन्होंने बताया कि हाँ इनकी तकलीफ हम समझते हैं अगर आप बस की व्यवस्था करते हैं तो हम जाने की अनुमति देंगे. लेकिन लिखित स्वरूप में नहीं दे सकते.

फिर हमने तहसीलदार और एस. डी. ओ. को फ़ोन लगाने के बाद उन्होंने भी अनुमति दे दी, लेकिन लिखित स्वरूप में कोई देने के लिए तैयार नहीं था. हम लोगों ने जा के इन आदिवासी को बताया कि आज 28 मार्च है और आप लोगों को कल 29 मार्च को बस आएगी ले जाने के लिए आप लोग अपनी तैयारी करो. उनका तो ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं था क्योंकि जो उन्हौने सपने में भी नहीं सोचा था वो उनको हकीक़त में आ रहा था. हालाँकि उन लोगों ने सोचा था अगर बस की परमिशन नहीं मिलती तो जो गाँव यहाँ से 80 कि.मी, 90 कि. मी. 110 कि.मी. दूरी तक है वहां उनका पैदल ही निकलने का प्लान था. लेकिन हमारी इस कोशिश की वजह से उनको थोड़ा हौसला आ गया. अब सब ठीक लग रहा था कि प्रशासन ने लिखित स्वरूप में नहीं लेकिन अनुमति तो दी थी, पुलिस भी अभी सपोर्ट के लिए तैयार थी तो हमें लग रहा था अभी कुछ दिक्कत नहीं है. रात को 9 बजे के करीब बस मालिक का फ़ोन आ गया. जब तक हमें लिखित स्वरूप में नहीं मिलेगा हम बस नहीं दे सकते क्योंकि अगर कहीं पुलिस ने बस को पकड़ा तो बस जब्त की जाएगी और हमारा 40–50 लाख का नुकसान हो जायेगा. हम लोगों ने काफी समझाने की कोशिश की कि 160 लोग हैं 3 बस की व्यवस्था की है. अब इतने लोगों को बताया है पुलिस और प्रशासन सब साथ देने के लिए तैयार है, हाँ लिखित नहीं लेकिन हमारा साथ देंगे लेकिन बस वाला कुछ मानने के लिए तैयार ही नहीं हो रहा था. रात को पौने दस बजे हम लोगों ने डी एस पी के साथ बस मालिक का मुलाक़ात करवा के दिया तब उसको थोड़ा हौसला आ गया. तब उन्होंने बस देने का कबूल किया. सुबह 6 बजे बस फूलगाँव के बस स्टॉप है वहीँ पे आने वाली थी. लेकिन सुबह साढ़े 4 बजे से ही कुछ लोग मेरे घर पे आके बेल बजाने लगे कि सही में बस आने वाली है? हम सब रेडी हैं. मैंने उनको बताया ज़रूर बस आने वाली है, आप इतना टेंशन मत लो. फिर भी लोगों को अभी तक यकीन नहीं आ रहा था. सुबह जैसे ही हम लोग फूलगाँव के पीछे पहुंचे देखा सब आदिवासी परिवार अपना छोटा मोटा समान लेके भर के सब नाके पे खड़े हैं. जैसे ही बस आ गई सब एकदम ख़ुशी की लहर उनके बीच आ गई. हम लोगों ने सबको मास्क पहनाए, हाथ पे सेनेटाईज़र डाला, जाने के लिए उनके पास स्नैक्स दे दिया, पानी का बोतल दे दिया और बस छूटने तक ये लोग काफी मात्रा में हमें नमस्कार कर रहे थे. हमारा शुक्रिया अदा कर रहे थे. मन में खुश थे कि अभी लॉकडाउन कितना दिन चलेगा पता नहीं 21 दिन तो बताए हैं लेकिन ये लोग कम से कम अपने परिवार के साथ गाँव में रहेंगे तो खुश भी रहेंगे. और उनका कोई दिक्कत हो जाता है तो उनका मसला भी हल किया जाएगा. आज जो तकलीफ इनको उठाना पड़ता है वो शायद उठाना नहीं पड़ेगा।इस तरह से उनकी बस जो है वो रवाना हो गई सुबह करीबन 10 बजे से फ़ोन आना शुरू हो गया कि हम लोग ठीक ठाक हमारे घर पे पहुंचे एक बार फिर आप सभी का धन्यवाद. हमें भी बहुत अच्छा लगा और वो बस यही कारण था कि उसी दिन से हम लोगों ने तय किया कि इस तरह से जो लोग मुसीबत में हैं उनको चाहे राशन चाहे गाँव जाने की ऐसी व्यवस्था कर के, हम लोग किस तरह से व्यवस्था कर सकते हैं वो देखेंगे. करीबन 160 लोगों को 3 बस भर कर हम लोगों और यूथ ने जो इनिशेटिव लिया जो प्रयास किया वो सही में अच्छा था काफी अच्छा लगा और जिसकी वजह से घर पहुँच सके.

मैकेंजी डाबरे

आशीष रघुवंशी द्वारा लिप्यंतरित और अंकित झा द्वारा संपादित

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