दिल्ली के सदर पहाड़गंज ज़ोन में एक टाउन वेण्डिंग कमिटी बैठक में एक बार तीव्र बहस चलने लगी कि उत्तरी दिल्ली के एक बाज़ार को सिर्फ़ भीड़ के कारण क्यों हटाया गया। पथ विक्रेताओं के प्रतिनिधियों की ओर से तर्क दिए गये कि पथ विक्रेता क़ानून के अनुसार दिल्ली में अभी वेण्डिंग व नॉन-वेण्डिंग ज़ोन तय नहीं किए गये हैं। तभी स्थानीय पुलिस प्रतिनिधि ने कहा कि उस बाज़ार को हटाने का स्पष्ट कारण है कि यह लोग वहाँ के ट्रैफ़िक को बाधित करते हैं, व ट्रैफ़िक बाधित होने के कारण इन पथ विक्रेताओं को वहाँ से हटाया गया है। सरकार द्वारा नामांकित एक सदस्य ने उनसे पूछा, पक्का यही कारण है ना? पुलिस प्रतिनिधि ने कहा, ‘बिल्कुल, कोई दो राय नहीं है।’ नामांकित सदस्य अपने स्थान पर खड़े हुए, पथ विक्रेता क़ानून की एक कॉपी उठायी और पढ़ने लगे, ‘पथ विक्रेता (जीविका संरक्षण और पथ विक्रय विनयमन) अधिनियम, 2014 की पहली अनुसूची की धारा 3 (ग) के अनुसार किसी क्षेत्र को विक्रय निषेध जोन घोषित करने के लिए किसी स्थान की भीड़-भाड़ आधार नहीं होगी।’ सभी निर्वाचित पथ विक्रेता प्रतिनिधि यह सुनते ही ताली पीटने लगे, पुलिस प्रतिनिधि ने बात को टालने की कोशिश की और उपायुक्त ने बात ना मानने की कोशिश की। लेकिन बैठक के बंद होने के बाद प्रतिनिधि एक बात स्पष्ट रूप से कह रहे थे कि ‘अगर क़ानून की समझ हो तो इन सभी अधिकारियों को चुप करवाया जा सकता है, क्योंकि यह ताक़त से नहीं, ज्ञान से डरते हैं।’
पथ विक्रेता (जीविका संरक्षण और पथ विक्रय विनयमन) अधिनियम, 2014 असंगठित श्रमिक वर्गों के दूसरे सबसे बड़े वर्ग के लिए पारित किया गया एक केंद्रीय क़ानून है जिसे मार्च 2014 में पास कर लागू किया गया था।
पथ विक्रेताओं का कानून को लेकर प्रशिक्षण
देश में पथ विक्रेताओं की संख्या का कोई निश्चित अनुमान नहीं है लेकिन अलग अलग आँकड़ों के अनुसार डेढ़ से दो करोड़ के बीच मानी जाती है। क़ानून के एक अनुमान के अनुसार शहरी जनसंख्या का ढाई प्रतिशत पथ विक्रेताओं के लिए आरक्षित रखना आवश्यक है, इसका अर्थ है है कि हम शहरी जनसंख्या का ढाई प्रतिशत भी यदि माने तो देश में 2011 की जनगणना के अनुसार 38 करोड़ शहरी जनसंख्या है। इसका ढाई प्रतिशत क़रीब 1 करोड़ शहरी पथ विक्रेताओं की जनसंख्या है। परंतु इतनी बड़ी जनसंख्या में बहुत बड़ा हिस्सा अभी संगठित रूप से किसी भी यूनियन अथवा संगठन से जुड़े हुए नहीं हैं और इस जनसंख्या को अभी भी पथ विक्रेता क़ानून के बारे में पता नहीं। इसका सीधा अर्थ यह है कि अपने अधिकारों व कल्याणकारी योजनाओं से वह अछूते हैं। इसमें एक बड़ी जनसंख्या छोटे शहरों के पथ विक्रेता व कॉलोनी व रिहायशी इलाक़ों में घूम घूम कर बेचने वाले विक्रेता हैं जिन्हें क़ानून की जानकारी ना होने के कारण कई बार पुलिस व प्रशासन द्वारा कार्रवाई का सामना करना पड़ता है। केंद्रीय क़ानून व राज्यवार नियम व योजना की जानकारी होना भी पथ विक्रेताओं का अधिकार है, इसके लिए सरकार के द्वारा कोई विशेष क़दम नहीं उठाए गये हैं। ख़ासकर 2020 में कोविड-19 के संक्रमण व प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना के लागू होने के बाद से इस योजना को ही पथ विक्रेताओं के लिए कल्याणकारी योजना की सीमा मान लिया गया है। यह आवश्यक है कि देश में कार्यरत सभी पथ विक्रेताओं को पथ विक्रेता क़ानून के बारे में पता चले व उन्हें इस क़ानून की विभिन्न धाराओं व उन्हें मिले अधिकारों के बारे में पता चले।
बेदख़ली के समय कानून की आवश्यकता
पथ विक्रेता क़ानून के अंतर्गत पथ विक्रेताओं को मिले सबसे महत्वपूर्ण अधिकार हैं: विक्रय का अधिकार व पुनर्वास का अधिकार। पथ विक्रेताओं का उनके विक्रय क्षेत्र से बेदख़ल होना इन दोनों ही मुख्य अधिकारों का उल्लंघन है। इसलिए जरुरी है कि पथ विक्रेताओं के उनके स्थान से बेदख़ली को पथ विक्रेताओं के अधिकारों के उल्लंघन के रूप ऐं देखा जाए ना कि प्रशासन द्वारा किए जा रहे अतिक्रमण के विरुद्ध कार्रवाई के रूप में। पथ विक्रेताओं की बेदख़ली को स्म्झ्ने के लिए आवश्यक है पथ विक्रेता क़ानून की धारा 3 (3) को समझना। बेदख़ली एक ऐसा उपाय है जिसके माध्यम से प्रशासन अवैद्य पथ विक्रेताओं को शहर के जगह पर अधिकार लेने से रोकती है, साथ ही नागरिय स्वच्छता व ट्रैफ़िक व्यवस्था के लिए यह किया जाता है, या फिर प्रशासन द्वारा तय ग़ैर विक्रय क्षेत्रों में विक्रय कर रहे पथ विक्रेताओं को हटा कर बेदख़ली की जाती है। बेदख़ली के इसके अलावा भी कई कारण हैं। इन सभी कारणों के बावजूद यह मुद्दा आगे रखना ज़रूरी है कि क़ानून के पहले की स्थिति क़ानून के बाद की स्थिति नहीं हो सकती है। इसके लिए क़ानून में दिए गये ज़रूरी क़दम और संगठनों की भूमिका ज़रूरी हो जाती है कि किस तरह से उन्हें पालन करवाया जाए। बेदख़ली से लड़ने का सबसे ज़रूरी रास्ता क़ानून है और उतना ही आवश्यक है पथ विक्रेताओं के पास क़ानून की जानकारी व समझ।
योजना के दिशानिर्देश अनुसार प्रशासन से ऐड्वकसी
राज्यों द्वारा पथ विक्रेता क़ानून की धारा 38 के तहत क़ानून के छः महीने के अंदर ही पथ विक्रेताओं के लिए स्कीम लाना था जिसके अंदर क़ानून के द्वितीय शेड्यूल के सभी विषय शामिल होंगे। इन स्कीम के माध्यम से शहरों में TVC द्वारा होने वाले सर्वे, पथ विक्रेताओं को वेण्डिंग प्रमाण पत्र, पुनर्वास का तरीक़ा, हटाने का तरीक़ा, सामाजिक सुरक्षा, व अन्य सभी सुविधाओं का ज़िक्र होना चाहिए। राज्य इसे स्थानीय सरकार व TVC के साथ परामर्श कर और भी आवश्यक मुद्दे जोड़ सकती हैं। परंतु बुनियादी स्तर पर ये स्कीम पथ विक्रेताओं के सर्वे, प्रमाण पत्र और बेदख़ली जैसे मुद्दों पर साफ़ होनी चाहिए व तय दिशानिर्देश होने चाहिए जो क़ानून से ज़्यादा अलग भी ना हो। एक तरफ़ जहाँ राज्य द्वारा पारित नियम क़ानून के पालन के लिए ज़रूरी हैं, वहीं स्कीम क़ानून के लाभ पथ विक्रेताओं को मिलने के लिए ज़रूरी हैं। इसलिए स्कीम में महत्वपूर्ण मुद्दों का होना बहुत ज़रूरी है। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली पथ विक्रेता (आजीविका संरक्षण एवं पटरी विक्रय विनियमन) स्कीम 2019 की धारा 6 (3) व 6 (4) में पथ विक्रेताओं के पुनर्वास व उनकी बेदख़ली से जुड़े सभी दिशानिर्देश साफ़-साफ़ लिखे गये हैं, जिससे पथ विक्रेताओं के पास एक बुनियादी दस्तावेज़ है जिसके दम पर वह अपने अधिकार माँग सकते हैं, लेकिन इसके विपरीत मध्यप्रदेश पथ विक्रेता स्कीम 2020 में पुनर्वास व बेदख़ली को लेकर कुछ साफ़ नहीं किया गया इसके विपरीत स्कीम में ही नो वेण्डिंग ज़ोन तय कर दिए गये हैं, जो कि क़ानून के प्रावधान के ख़िलाफ़ हैं। समझने वाली बात यह है कि दिल्ली व मध्यप्रदेश दोनों ही जगह TVC गठन से पूर्व ही स्कीम लाया गया जो धारा 38 के विरुद्ध है।
पथ विक्रेताओ के लिए पारित योजनाओं के माध्यम से स्थानीय सरकार से पैरवी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह योजना स्थानीय स्तर पर होने वाली गतिविधियों व राज्य के हालात को ध्यान में रखते हुए बनाए जाते हैं। इस कारण योजनाओं के दिशानिर्देशों का पथ विक्रेताओं को समझ होना ज़रूरी है। उदाहरण के लिए यदि किसी TVC बैठक में अध्यक्ष बिना किसी परामर्श के सर्वे के नोरदेश दे तो निर्वाचित सदस्य उन्हें यह बताएँ कि योजना के अनुसार किन मुद्दों को ध्यान में रखना ज़रूरी है, व सर्वे के लिए किन दस्तावेज़ों की आवश्यकता पड़ सकती है। ठीक इसी तरह पथ विक्रेताओं की योग्यता, बेदख़ली या सामान की ज़ब्ती के समय के निर्देश, ज़ब्ती के बाद सामान को वापस छुड़वाने के लिए लगने वाले ख़र्च आदि सब कुछ योजनाओं में साफ़ होना चाहिए। यदि यह मुद्दे शामिल नहीं हैं तो इन मुद्दों को शामिल करवाने के लिए पैरवी की जानी चाहिए।
टीवीसी का गठन व समिति के कार्य
पथ विक्रेता क़ानून 2014 की धारा 22 के अनुसार सभी स्थानीय सरकार राज्यवार नियमों के आधार पर सभी स्थानीय स्तरों पर टाउन वेण्डिंग कमिटी (TVC) का गठन करेंगे जिसमें 40% भागीदारी पथ विक्रेताओं के निर्वाचित प्रतिनिधियों का होना चाहिए। इस समिति की अध्यक्षता ‘निगमायुक्त’, मुख्य कार्यपालन अधिकारी या राज्य के नियमों के अनुसार निकाय के प्रमुख द्वारा की जाएगी। क़ानून के अनुसार TVC का गठन, इसकी बैठके, इसके अधिकार, इसकी शक्तियाँ, इसके सदस्यों की नियुक्ति, तथा अन्य ज़रूरी कार्यों का उल्लेख राज्यों द्वारा पारित की जाने वाले नियमों में होना चाहिए। TVC की अवधारणा पथ विक्रेताओं से जुड़े सभी महत्वपूर्ण घटकों को एक साथ लाकर उनके बीच समन्वय बना कर पथ विक्रेताओं के अधिकार सुनिश्चित करवाने के लिए रखी गयी है। इसलिए सबसे ज़रूरी है कि पथ विक्रेताओं के लिए राज्यों में पारित हुए नियमों में TVC के गठन को लेकर जारी हुए दिशानिर्देश क़ानून के अनुसार ही हों जिसमें TVC के सदस्यों, उसमें पथ विक्रेताओं की भागीदारी व सदस्यता, इसकी शक्तियाँ व बैठक की अवधि आदि स्पष्ट रूप से क़ानून से मिलती हों। उदाहरण के लिए कुछ राज्यों जैसे दिल्ली व झारखंड में TVC के सदस्यों की संख्या TVC के कुल सदस्यों का 40% है और वह भी निर्वाचन के माध्यम से तय किया जाएगा, लेकिन उड़ीसा में सिर्फ़ चार पथ विक्रेताओं को नामांकित करने का प्रावधान है। इसी तरह बिहार में निर्वाचन की जगह नामांकन के रूप से TVC गठन के निर्देश हैं, वहीं माध्या प्रदेश में निर्वाचन होना चाहिए लेकिन नियमों के पारित होने के 4 साल बाद भी TVC गठित नहीं की गयी है।
TVC गठित किया जाना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि पथ विक्रेताओं के अंदर अपने काम को लेकर स्वामित्व का भाव आना आवश्यक है व पथ विक्रेताओं से जुड़े सभी संगठन, समूह, यूनियन व संस्थाओं की ओर से पथ विक्रेताओं को जागरूक कर उन्हें इस प्रक्रिया का महत्व समझा सकाईं। TVC गठित किए बिना क़ानून का पालन असम्भव है। इसका मुख्य कारण यह है कि बिना TVC के महत्वपूर्ण फ़ैसले लिए ही नहीं जा सकते। क़ानून के अनुसार TVC के महत्वपूर्ण कार्य पथ विक्रेताओं का योजना के अनुसार सर्वे, उन्हें सर्वे के अनुसार वेण्डिंग प्रमाण पत्र का आवंटन, विक्रय व ग़ैर विक्रय ज़ोन का निर्धारण, और नए पथ विक्रेताओं को प्रक्रिया में शामिल करने के लिए निर्देश तैयार करना है। पथ विक्रेताओं से जुड़े लगभग सभी मुद्दे जब TVC तय करेगी, इसके लिए महत्वपूर्ण है कि इससे जुड़े सभी घटक इसमें शामिल हो, व उनमें समन्वय हो, जिससे कि बेहतर क्रियान्वयन सुनिश्चित की जा सके।
कानून के पालन ना होने पर रास्ते
क़ानून के होने व क़ानून के पालन होने की स्थिति में काफ़ी अंतर है। 2020 के सेंटर फ़ोर सिवल सॉसायटी के रिपोर्ट के अनुसार दो राज्यों में अभी तक नियम नहीं बने हैं, वहीं सात राज्यों में योजना नहीं बन पायीं हैं। इसका मतलब यह है कि देश में शहरी ग़रीब व असंगठित मज़दूरों के लिए बने अन्य कानूनो की ही तरह पथ विक्रेता क़ानून का भी क्रियान्वयन काफ़ी धीमा है। क़ानून के इस तरह के क्रियान्वयन से एक बहुत बड़ा वर्ग पिछले सात वर्षों से इस क़ानून का लाभ पाने से अछूते रह गये हैं। उदाहरण के लिए दिल्ली में जनवरी 2018 में नियम पारित किए गये, 2019 के अक्टूबर में TVC गठित हुई, इसी महीने स्कीम पारित हुआ, TVC बैठके हुईं और पहला सर्वे 2020 के दिसम्बर में शुरू हुआ। मई 2021 तक कुल 55000 सर्वे हुए लेकिन जुलाई 2021 तक 200 से भी कम अप्रूवल हो पाया है। यदि क़ानून के अनुसार शहर के ढाई प्रतिशत जनसंख्या को हम पथ विक्रेता मानें तो दिल्ली में पाँच लाख से अधिक पथ विक्रेता हैं, लेकिन अभी सर्वे हुआ है मात्र 55000 मतलब क़रीब 10%। और यह दिल्ली की बात है जहाँ देश में पथ विक्रेता क़ानून का पालन सबसे अच्छे से माना जा रहा है।
क़ानून के पालन होने पर ज़ोर देने के लिए ज़रूरी है कि पथ विक्रेताओं को पता हो कि उनके लिए एक क़ानून है, जिसका पालन नहीं किया जा रहा है। लेकिन बड़े शहरों को छोड़ दिया जाए, या फिर ऐसे ओथ विक्रेताओं को छोड़ दिया जाए जो किसी यूनियन या संगठन से जुड़े हुए हैं तो क़ानून को लेकर जागरूकता ही नहीं है। ऐसे में सरकार की जवाबदेही तय नहीं हो पाती है। क़ानून की धारा 33 के अनुसार यह क़ानून किसी भी अन्य क़ानून जो पथ विक्रेताओं पर लागू होते हैं उन्हें निरस्त कर यही क़ानून सर्वोपरि माना जाएगा। इसलिए अन्य क़ानूनों का हवाला दे कर इस क़ानून को कमज़ोर नहीं किया जा सकता है। यदि इस क़ानून का पालन नहीं होता है तो उसे लेकर कोई प्रावधान तय नहीं किए गये हैं, लेकिन अदालत द्वारा कई मामलों में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि पथ विक्रेताओं से जुड़े सभी निर्णय TVC ही लेगी व उनका गठन जल्द किया जाए।
शहरी पथ विक्रेताओं के लिए क़ानून, फिर गाँवों का क्या?
राजस्थान राज्य के राजसमंद जिले के भीम पंचायत में 2018 से 2019 के बीच लगातार पथ विक्रेताओं को पुलिस द्वारा हटाया जाने लगा। हालाँकि भीम एक पंचायत है लेकिन भौगोलिक और जनसंख्या के लिहाज़ से यह किसी क़सबे की ही तरह है। अब क्योंकि पथ विक्रेता कनू 2014 केवल शहरी क्षेत्रों पर ही लागू होता है, इसलिए यहाँ के पथ विक्रेताओं को इस क़ानून से कोई सहायता नहीं मिल सकती थी। अब इस तरह से कई ग्रामीण क्षेत्रों में भी पथ विक्रेताओं और ख़ासकर पारम्परिक रूप से हाट में लगाने वाले पथ विक्रेताओं को भी पुलिस व प्रशासन द्वारा परेशान किया जाता है। क़ानून सबसे पहले अपनी सीमा तय कर देता है, और शहरों के पथ विक्रेताओं के लिए दिशानिर्देश तय कर दिए गये हैं। लेकिन पथ विक्रेताओं का एक बड़ा समूह शहरी पथ विक्रेताओं के परिभाषा के बाहर आते हैं जिसमें रेलवे में कार्यरत पथ विक्रेता व ग्रामीण इलाक़ों में कार्यरत पथ विक्रेता।
भीम पंचायत के मामले में नैशनल हॉकर फ़ेडरेशन और मज़दूर किसान शक्ति संगठन के प्रयासों के कारण भीम के पथ विक्रेताओं को संगठित कर पंचायत स्तर पर उनके लिए संघर्ष की शुरुआत की गयी। स्थानीय सरपंच, व पंचायत अधिकारियों की ओर से इसका हल यह निकाला गया कि पंचायत क्षेत्र के सभी पथ विक्रेताओं को एक पहचान पत्र दिया गया कि वह एक पथ विक्रेता हैं व पंचायत क्षेत्र में काम कर सकते हैं। कुछ दिनों तक ठीक रहने के बाद फिर से प्रशासन द्वारा उन्हें परेशान किया जाने लगा। फिर पथ विक्रेता क़ानून के बारे में क़रीब 50 पथ विक्रेताओं से बात कर यह तय हुआ कि पंचायत से यह माँग रखी जाएगी कि ‘टाउन वेण्डिंग कमिटी’ की ही तरह पंचायत स्तर पर ‘पंचायत वेण्डिंग कमिटी’ बनायी जाए और बाद में यह विचार राज्य सरकार तक ले कर जाया जाएगा। विभिन्न राज्यों में पंचायतों का आकार अलग अलग है जहाँ राजस्थान में कम पंचायत हैं व उनके आकार बड़े हैं वहीं आन्ध्र प्रदेश में पंचायत छोटे हैं व अधिक हैं। कुछ राज्यों में पंचायत विकसित हैं तो कुछ राज्यों में पंचायत ग्रामीण परिवेश के हैं, ऐसे में शहरी विविधताओं की तरह ही ग्रामीण विविधताओं को समझते हुए पथ विक्रेताओं के लिए क़ानून को गाँवों तक पहुँचाया जाए जिससे एक बड़े जनसंख्या को इसके अंदर शामिल किया जा सके।
इसका प्रयास राजस्थान के भीम सेशुरू हुआ, अभी भी यह सफल नहीं हो पाया है। लेकिन युवा, NHF व MKSS के संयुक्त प्रयास से पंचायत पर इसे लागू करने का दवाब बनाया गया। ऐसा यदि सभी राज्यों में हो तो बदलाव आ सकता है।
पथ विक्रेता क़ानून कितना सशक्त?
संसद द्वारा पारित सभी क़ानून सशक्त भले ही हो जाएँ, लेकिन उनकी कुछ सीमाएँ होती हैं। पथ विक्रेता क़ानून काफ़ी सशक्त है, लेकिन क्या इसकी कोई सीमाएँ नहीं है? यह ज़रूरी सवाल है व यह पूछना ज़रूरी है। इस क़ानून में पथ विक्रेताओं के प्रतिनिधित्व से लेकर, निर्णय का अधिकार भी एक दूसरी बॉडी को दिया गया है फिर भी इसका प्रभाव नहीं के बराबर रहा है। 2014 से पथ विक्रेताओं की बेदख़ली होती रही है। न्यायालय में मुद्दे पर लड़ने के लीए क़ानून के प्रावधान कारगर हैं लेकिन क्या कारण है कि क़ानून के बावजूद पथ विक्रेताओं की बेदख़ली हुई है, शहरी विकास परियोजनाओं में क़ानून के प्रावधान नहीं लिखे जाते, मास्टर प्लान जैसे दस्तावेज़ क़ानून के आने के बाद संशोधित नहीं हुए, नए प्लान में इसे शामिल नहीं किया जा रहा, जब कल्याणकारी योजनाएँ लागू होती हैं तो उन योजनाओं को ही पथ विक्रेताओं का भला माँ लिया जाता है और क़ानून का ज़िक्र भी नहीं होता? ऐसे कई सवाल पथ विक्रेता क़ानून के सशक्त होने पर प्रश्न खड़ा करते हैं। कई राज्यों ने क़ानून के विपरीत जाकर नियम बनाए हैं, स्कीम बनाए ही नहीं, TVC के नाम पर नगर निगम की ही समिति बना दी है। क्यों? क्या समाधान है?
पथ विक्रेता क़ानून एक बात स्पष्ट करता है और वही किसी भी स्थिति में सशक्त क़ानून है कि पथ विक्रेताओं को दो अधिकार है; विक्रय का व पुनर्वास का। इन दोनों के होने से सभी बातें स्वयं स्पष्ट हो जाती हैं कि स्थानीय प्रशासन पथ विक्रेता क़ानून को जानता नहीं है, या मानता नहीं है। इसके लिए प्रावधान हो सकता था। स्थानीय प्रशासन पर क़ानून के उल्लंघन से जुड़े दंड को लेकर प्रावधान। हैं भी। लेकिन उससे भी अधिक कुछ। ताकि प्रशासन करोड़ों पथ विक्रेताओं के साथ इस तरह खिलवाड़ नहीं करता। यहाँ पर एक महत्वपूर्ण भूमिका पथ विक्रेता से जुड़े यूनियन व संगठनों का भी है। इन यूनियनों को पथ विक्रेताओं के साथ ऐसे प्रयास करने चाहिए कि पथ विक्रेताओं के बीच से नेतृत्व निकले जो समझ, जानकारी व समाधान जानते हों, प्रक्रियाओं में हस्तक्षेप कर सकें। इससे ही पथ विक्रेता क़ानून को पूरी तरह से सशक्त कर पथ विक्रेताओं के हित के लिए लागू किया जा सकेगा।
पथ विक्रेता हमारे समाज व आर्थिक ढाँचे की एक महत्वपूर्ण कड़ी है व उनके जीविका की सुरक्षा एक करना सबकी साझी ज़िम्मेदारी है। इसलिए पथ विक्रेता क़ानून, उनसे जुड़े महत्वपूर्ण अदालतों के आदेश व सरकारी योजनाओं की समझ बनाना व उस समझ को जागरूकता के रूप में पथ विक्रेताओं तक पहुँचाना हम सब की साझी ज़िम्मेदारी है।
अंकित झा, अर्बन प्रैक्टिशनर. यह लेख अंकित के युवा में काम पर आधारित है.
यह सड़क विक्रेताओं पर लिखे गए तीन भाग का दूसरा भाग है। भाग १ के लिए यहाँ दबाएँ। भाग ३ के लिए यहाँ दबाएँ।