मुंबई की बॉलीवुड फ़िल्में देश भर में मशहूर हैं. यहां से हर साल सैकड़ों फ़िल्में बनकर निकलती हैं जिनका मकसद आर्थिक कमाई करने के साथ ही कुछ हद तक लोगों में सामाजिक बदलाव लाना भी होता है. ऐसी कई फ़िल्में बनीं जिसने लोगों की सोच को बदला या उन मुद्दों पर नजर डाली जिनको उन्होंने कभी जरुरी नहीं समझा. इसलिए कहा जाता है कि फ़िल्में समाज का आईना होती हैं. वे वही दिखाती हैं जो समाज में चल रहा होता है. मगर इस सबके बाद भी हमारी फिल्मों के लिए जो एक जरुरी मसला ये है कि जिस वंचित तबके की कहानी को फिल्मी परदे पर दिखाकर फिल्मकार वाहवाही लूटते हैं वे ही असल में फिल्मों के प्रदर्शन से गायब होते हैं. यानी कभी ऐसी फिल्मों को इस समाज के बीच जाकर दिखाने और उनसे इस बारे में चर्चा करने की जरुरत नहीं समझी जाती है. सिर्फ ये फ़िल्में किसी बड़े फिल्म फेस्टिवल के प्रदर्शन तक ही सिमट कर रह जाती हैं.
इसी मसले को गंभीरता से लेते हुए पिछले दिनों युवा संस्था ने मुंबई शहर में आयोजित कॉम्प्लेक्ससिटी कार्यक्रम में फिल्म फेस्टिवल को प्रमुखता दी. फिल्म फेस्टिवल कार्यक्रम के लिए मुंबई और इसके आसपास की तीन बस्तियों को चुना गया. बस्तियों की मुख्य समस्याओं को ध्यान देते हुए वहाँ इसी तरह की फ़िल्मों का चयन किया गया, ताकि स्थानीय लोग आसानी से इन फिल्मों से जुड़ सके और आपसी चर्चा में अपनी बात रख सकें.
यह फिल्म मेरे जीवन से जुड़ी है
नवी मुंबई के बेलापुर में जय दुर्गा माता नगर पहाड़ों के बीचोबीच बसी एक सुंदर बस्ती है. शाम ढलने को है. सूरज पहाड़ों के बीच कहीं खो जाने को उत्सुक लग रहा है. लेकिन सूरज के ढलने के साथ ही इस बस्ती के बच्चों, युवाओं और महिलाओं की उत्सुकता भी बढ़ गई है. इसकी वजह यहां पहली बार किसी फिल्म प्रदर्शनी का आयोजन का होना है. बस्ती के बिलकुल बीच में छोटे से मंदिर के प्रांगण को अपने हाथों से छोटे-छोटे बच्चे साफ़ कर रहे हैं. शायद उन्हें फिल्म देखने की जल्दी है. लेकिन सूरज ढलने का नाम नहीं ले रहा है. आखिरकार कुछ देर बाद शाम ढल ही गयी. सभी बच्चे, महिलाएं, बुजुर्ग और पुरुष ज़मीन पर बिलकुल अनुशासित तरीके से बैठकर फिल्म देखने से पहले फिल्म के बारे में ध्यानपूर्वक सुन रहे हैं. युवा के सदस्य जिन्हें इस फिल्म आयोजन की जिम्मेदारी दी गयी है वे भी अपने हर काम को पूरी लगन से करने में जुटे हैं. धीरे-धीरे इस प्रांगण में लोगों की भीड़ बढ़ रही है. शुरुआत में कम संख्या के मुक़ाबले अब लोगों की संख्या अच्छी दिखाई दे रही है. लगभग 110 से अधिक लोग फिल्म देखने आये हैं. सबसे खास बात इसमें महिलाओं की खासी संख्या है. ये अपने रोजमर्रा के काम को या तो निबटाकर आयी हैं या फिर कुछ देर के लिए रोक कर.
इस बस्ती में डस्ट वी राइज फिल्म दिखाई जायेगी. यह फिल्म मुंबई महानगर पालिका के सफाई कामगारों की कहानी करती है. इसकी मुख्य वजह यह है कि यहां रहने वाले अधिकतर लोग भी इसी तरह के कामकाज से जुड़े हैं. जैसा कि हमने शुरुवात में ही बताया कि हमारा मकसद फ़िल्में दिखाकर सिर्फ लोगों का मनोरंजन करना नहीं है बल्कि इन फिल्मों के जरिए उनके असली मुद्दों से उन्हें जोडना और शहर में एक सकारात्मक चर्चा की शुरुवात करना है. जिससे कि दूसरे लोगों को भी इस बारे में पता चल सके.
फिल्म शुरू हो चुकी है. बिलकुल शांत माहौल के बीच लोग इस फिल्म के हर एक दृश्य को ध्यान से देख रहे हैं. इस फिल्म का पहला ही दृश्य, जहां एक सफाई कामगार अपने साथ होने वाले भेदभाव के बारे में बता रहा है. वह कह रहा है कि इस शहर को हम साफ़ करते हैं लेकिन शहर वाले ही हमें देख कर नाक सिकोडते हैं. इस बात को सुनकर फिल्म देख रही एक बुजुर्ग महिला कुछ बुदबुदा रही है जो बिलकुल मेरे पास ही बैठी हैं. शायद उन्हें इस बात का दुःख है. जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती जाती है लोगों के चहरे के भाव भी बदलने लगते हैं. ऐसा लग रहा है कि इस फिल्म के हर दृश्य से वे जुड़ाव महसूस कर रहें हैं. कुछ मिनट बाद फिल्म समाप्त हो गयी. फिल्म समाप्ति के बाद इसी फिल्म पर एक चर्चा की शुरुआत हुई. लोगों को देखकर ऐसा लग रहा है कि वे अपने मन कि बातें लोगों से साझा करना चाहते हैं लेकिन कई बार उनकी झिझक उन्हें रोक लेती हैं. यहां भी कुछ ऐसा ही नजारा है.
इसी बीच लगभग 60 साल के गणेश भाऊ इस चर्चा में शामिल होते हैं. उन्होंने कहा कि शहर में सफाई का काम मैंने खुद किया है. और इन समस्याओं को काफी करीब से देखा है. हमें अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना चाहिए. उन्होंने फिल्म में सफाई कामगारों के साथ वेतन के लिए होने वाले भेदभाव के लिए काफी गुस्से में कहा कि जो लोग दिन रात शहर में झाडू लगाते हैं उन्हें मामूली पगार मिलता है और जो लोग सिर्फ हाथों में झाड़ू लेकर एक दिन सड़क पर निकल जाते हैं, अखबारों और टीवी पर उनकी चर्चाएं होने लगती हैं. ये सब बंद होना चाहिए. जाहिर है इसी फिल्म के एक दृश्य में बॉलीवुड अभिनेत्री हेमामालिनी अपने संसदीय क्षेत्र मथुरा की सड़कों पर झाड़ू लिए फिर रही हैं. और उनके चारों ओर मीडिया का भारी जमावड़ा है.
एक और प्रौढ़ महिला इस चर्चा को आगे बढाती हुई कहती हैं कि भले ही लोग कहते हैं कि शहरों में भेदभाव नहीं होता है लेकिन यह फिल्म देखने के बाद यह साबित हो गया कि शहर हो या गांव गरीबों के साथ हर जगह भेदभाव होता है. फिल्म के एक दृश्य को देखकर इनमें काफी रोष है जिसमें एक सफाई कामगार के पैरों में चोट लगने पर डॉक्टर इलाज करने और अपने हाथ से उसके पैरों को छूने से मना कर देते हैं. शायद यह शहरों में भेदभाव का सबसे क्रूर रूप है.
अंत में एक बुजुर्ग महिला उठते हुए बिना माइक थामे धीरे से कहती हैं कि यह फिल्म मेरे जीवन से जुड़ी है. इनके कुछ शब्दों ने ही मानो फिल्म के हर पात्र को यहां बैठे लोगों के असल जीवन से जोड़ दिया हो.
लड़का-लडकी के बीच खेलों में भेदभाव समाप्त हो
खुले आसमान के नीचे यह फिल्म हर देखने वाले को कुछ समय के लिए ही सही लड़कियों को न मिलने वाले खेलने के उनके हक के लिए सोचने को मजबूर कर देती है. यह फिल्म लल्लू भाई कम्पाउंड के लाल मैदान में फिल्म फेस्टिवल के दूसरे दिन दिखायी गयी. चारों ओर से सटी हुई ऊंची इमारतों से घिरे इस कम्पाउंड में यूं तो दिन भर लड़के ही कोई न कोई खेल खेलते रहते हैं. लेकिन फिल्म देखने के बाद कई अभिभावकों ने यह माना कि अब से वे अपनी बच्चियों को भी बाहर खेलने जाने देंगी.
इस फिल्म की शुरुआत ही लड़कियों को उनके खेलने के अधिकारों कि अनदेखी से शुरू होती है और अंत तक मुंबई शहर में लडकियों के लिए खेल के मैदान की कमी से लेते हुए उनके साथ होने वाले हर भेदभाव की पड़ताल करती है. चूंकि लल्लू भाई कम्पाउंड में भी लड़कियों के लिए खेल का कोई अलग मैदान नहीं है और जहां लड़के खेलते हैं वहां लड़कियों को भेजना ए़क असुरक्षा का भाव पैदा करता है. फिल्म देखने के बाद एक महिला ने ये बातें कही.
इसी तरह कई लड़कियों ने भी खेलने की अपनी रूचि और मैदान की कमी के बारे में शिकायत की. जूनियर कॉलेज में पढ़ने वाली दीपा कहती हैं कि सरकार ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का नारा तो देती है लेकिन हमारे खेलने के बारे में भी सरकार ने सोचना चाहिए. क्योंकि पढ़ने के साथ ही खेल भी हमारे जीवन का ए़क अहम हिस्सा है. दीपा की तरह ही सौरभ भी लड़कियों को खुले मैदान में खेलने की वकालत करते हैं. उनका कहना है कि खेलों में लड़का-लड़की के बीच बिलकुल भी भेदभाव नहीं होना चाहिए. सरस्वती का मानना है कि लड़कियों को खेलने के लिए बाहर लाने में सबसे बड़ी भूमिका परिवार वालों की होती है. उन्हें हमपर यकीन करना चाहिए. हमारी सुरक्षा का हवाला देकर हमें घर के भीतर कैद करना कहीं से भी उचित नहीं है.
इस फिल्म प्रदर्शन के दौरान लड़कियों और उनके अभिभावकों का अधिक संख्या में उपस्थिति होना सबसे खास रहा. यहां फिल्म दिखाने का हमारा मकसद भी यही था कि लड़कियां और उनके अभिभावक एक साथ आगे आये और लड़कियों को उनके खेल के मैदान के बुनियादी हक की लड़ाई को ए़क चर्चा के जरिए आगे बढाये.
शहर में हमारी जरूरतें पूरी होनी चाहिए
युवा द्वारा बस्तियों में फिल्म फेस्टिवल का आखिरी पड़ाव मालाड के अम्बुजवाड़ी में सम्पन्न हुई. अम्बुजवाड़ी में बस्तियों में बुनियादी सुविधाओं का न होना ए़क बड़ी समस्या है. यहां बस्तियों में पीने के पानी की कमी के साथ ही शौचालय लोगों के लिए ए़क बड़ा मुद्दा है. बस्तियों की इन्हीं बातों को युवा की ओर से बनाई गयी फिल्म समावेशी शहर भी उठाती है. हम इस फिल्म के जरिए समावेशी शहर की अवधारणा से लोगों को जोड़ना चाहते हैं. यह फिल्म लोगों के हर मुद्दे पर सवाल उठाती है.
हर बार की तरह ही इस बार भी लोगों ने फिल्म देखने में खास रुचि दिखाई. लेकिन आखिरी दिन का यह आयोजन थोड़ा अलग था. क्योंकि हमने इस फिल्म के प्रदर्शन के लिए बस्ती के बीचोंबीच ए़क चौराहे को चुना था. जिससे कि लोग अपने नियमित कामकाज से लौटते हुए फिल्म आयोजन के बारे में जानकर इससे जुड़ सके. करीब 120 की संख्या में जुटे महिलाओ और पुरुषों ने फिल्म में दिखाए गए सर्वसमावेशी शहर के मुद्दे को अपने लिए खास बताया. दिहाड़ी का काम करने वाले आसिफ ने फिल्म देखने के बाद चर्चा में कहा कि यह जानकर अच्छा लगा कि बस्तियों के बारे में भी कोई सोच रहा है.
ए़क और बुजुर्ग ने कहा की हमें कमाने के लिए शहर कि जरूरत नहीं है लेकिन सरकार पहले हमारी प्रमुख जरूरतों को पूरा करे. उन्होंने सरकार के कामकाज के तरीके को गलत बताते हुए आगे कहा कि इसी बस्ती में कई जगह शौचालय बने हुए हैं लेकिन हमारे पास पानी नहीं है. जब तक पानी नहीं होगा लोग शौचालय का प्रयोग कैसे करेंगे? इसलिए पहले हमारे पीने के पानी के बारे में सरकार सोचे.
यहां कई महिलाओं ने भी चर्चा में अपनी बात रखी. लेकिन जब लोगों से पूछा गया कि क्या यह फिल्म आपके मुद्दों को दिखाती है? लगभग सभी ने ए़क साथ हाथ उठाकर सहमती जताई.
भले ही आज शहरों में समावेशन का मुद्दा जोर शोर से उठ रहा हो लेकिन लोगों की हर रोज की समस्याओं का समाधान किए बिना इसे आगे नहीं बढ़ाया जा सकता. इसके लिए मजदूर से लेकर उच्च वर्ग को एक साथ आगे आकर लोगों की समस्याओं को समझना चाहिए और उसके व्यापक हल के साथ ही इसे सुलझाने में सभी का समावेशन हो.
युवा द्वारा तीन दिनों तक अलग-अलग बस्तियों में दिखाई गयी फ़िल्में भले ही ए़क दूसरे से अलग हों लेकिन ये समाज के जरुरी और बुनियादी मुद्दों को ए़क साथ रखने में सफल रहीं. उम्मीद है इस आयोजन के बाद लोगों के बीच उनके जरुरी मुद्दों को लेकर शहर में शुरू की गयी चर्चा आगे भी जारी रहेगी और इसके जरिए इसे पूरा करने में सहयोग मिलेगा.
Sushil Kumar
Consultant, YUVA
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