COVID-19 Lockdown and Resilience: Narratives from the Ground
Shamsu (name changed), 30, lives in Sector 4 in Koparkhairane, Navi Mumbai. He and his wife support a family of eight people including two children and two elderly parents.
He is a naka (daily-wage) worker and hasn’t found any work since the lockdown. ‘I have not gone to work because I have not got any work these months and I have no hope of finding any. If we go looking for work now, the police chase us away. I am looking for any work that is available in construction. I used to do mistri work earlier but now I am doing begari work.’ He states that so long as the cement, hardware and electric shops don’t open in the market, naka work will remain shut and they won’t find any work.
A lot of his fellow naka workers have gone to their villages. They were unable to pay for household expenses such as rent, electricity and water. And they somehow managed to arrange money and food for their travel back home. ‘Only 10 per cent of the lot remains now. Their situation is very tense,’ he says. There is a severe shortage of money. There are about 250–300 people who I personally know of and meet everyday who are facing such a dire situation. Most of them are surviving on the meagre ration provided by the municipality or the civil society.
They tried to meet the corporator requesting for the provision of ration, but to no avail. He says, ‘The government only caters to those who live in the slums. They don’t go check on people living in difficult situations in societies. Who will help us? Neither does the corporator enquire about them nor does anyone else. They have only called and helped those who are in their contact. I recently went to the corporator and he helped me with 2 kg worth ration because I went through somebody’s contact. He then told me not to tell anyone else about it. Is this the job of a corporator?’
He got himself registered with the Building and Other Construction Workers (BOCW) Welfare Board about 3 years ago. He has never received any benefit through it though. ‘They asked us to renew our application. We gave the documents to the municipality. Those papers are sitting idle for four months now and nobody acts on it.’ He got his wife, a domestic worker, also registered with the Domestic Workers’ Welfare Board, and like him, she has not benefited from it either.
Thoroughly dejected from the repeated unattended visits he has had to make to renew his BOCW registration, Shamsu says he has no hope from the government. ‘Those who work in the unorganised sector are treated like cattle. Nobody cares about them, they are not heard anywhere. The lockdown has only been imposed now, we have been trying to get the government to hear us for the past five years. If we go to a ward office, we are chased away. If we give a request, there is no enquiry on it for months or even a year. We were able to get ourselves registered because of a registration camp that was organized by the L&T company in Navi Mumbai once, but we haven’t benefited from it at all. When we go to inquire, we are only told to come the next day, or the day after that, or the day after that. We are only given dates. We are only told that this or that officer is not present. This is what goes on. Nothing ever proceeds.’
They submitted 70–80 forms to the police station as well as to the ward office about a month before the lockdown to ask for a new job. But again, to no avail. With the government not able to implement their schemes or work on their requests, he asks, ‘How do we trust such a government?’
As narrated to Deepak Kamble, Ankit Jha and compiled by Aayushi Bengani
स्थान: कोपरखैराने, नवी मुंबई
30 वर्षीय शम्सू (बदला हुआ नाम), नवी मुंबई के कोपरखैराने के सेक्टर 4 में रहता है. वह और उसकी पत्नी अपने दो बच्चों और दो बुजुर्ग माता-पिता सहित आठ लोगों के परिवार की देखभाल करते हैं.
वह एक नाका कामगार है और लॉकडाउन के बाद से उसे कोई काम नहीं मिला है. ‘मैं काम पर नहीं गया हूं और ऐसा इसलिए है क्योंकि मुझे इन महीनों में कोई काम नहीं मिला है और मुझे कोई उम्मीद भी नज़र नहीं आ रहा है. अगर हम अभी काम की तलाश में जाते हैं, तो पुलिस हमें परेशान करती है. मैं निर्माण कार्य से जूड़ा कोई भी काम करने को तैयार हूँ. मैं पहले मिस्त्री का काम करता था, लेकिन अब मैं बेगारी का काम कर रहा हूं.’ वह कहते हैं कि जब तक सीमेंट, हार्डवेयर और बिजली की दुकानें बाजार में नहीं खुलेंगी, तब तक नाका काम बंद रहेगा और उन्हें कोई काम नहीं मिलेगा.
उनके बहुत से साथी नाका कामगार अपने गाँव चले गए हैं. वे किराए, बिजली और पानी जैसे घरेलू खर्चों का भुगतान नहीं कर पा रहे थे. और उन्होंने किसी तरह अपने घर वापस जाने के लिए पैसे और भोजन की व्यवस्था की. अब केवल 10 प्रतिशत ही बाक़ी रह गये हैं और उनकी स्थिति बहुत तनावपूर्ण है,’ वे कहते हैं. पैसों की घोर कमी है. मैं लगभग 250–300 ऐसे लोगों को जानता हूँ या उनसे रोज़ाना मिलता हूँ जो इस तरह की विकट स्थिति का सामना कर रहे हैं. उनमें से अधिकांश नगर पालिका या सामाजिक संस्थाओं द्वारा प्रदान किए गए राशन पर जीवित हैं.
उन्होंने राशन प्रबंध करवाने के लिए अपने नगरसेवक से मिलने की कोशिश की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. वह कहते हैं, ‘सरकार मुश्किल से बस्तियों में रहने वाले लोगों तक मदद पहुँचाती है. वे सोसाईटी में रहने वाले लोगों पर कोई ध्यान नहीं देती है जिनमें भी ऐसे लोग रहते हैं जिन्हें भी दिक़्क़तें हो सकती हैं. इन सोसाईटी में रहने वालों की मदद कौन करेगा? न तो नगरसेवक उनके बारे में पूछताछ करते हैं और न ही कोई और करता है. उन्होंने केवल जान पहचान वालों को ही बुलाया और उनकी मदद की. मैं हाल ही में नगर सेवक के पास गया और उसने मुझे 2 किलो मूल्य के राशन की मदद की क्योंकि मैं उनके जानने वाले किसी के संपर्क में था. उन्होंने तब मुझसे कहा था कि मैं इसके बारे में किसी और को न बताऊं. क्या यह एक नगरसेवक का काम है?’
उन्होंने लगभग 3 साल पहले ही निर्माण कामगार बोर्ड में पंजीकरण करवाया था. लेकिन उन्हें इसका कोई लाभ कभी नहीं मिला. ‘उन्होंने हमें इसे नवीनीकृत करवाने के लिए कहा. हमने इसके लिए आवेदन भी कर दिया है और दस्तावेज नगर निगम को जमा कर दिए हैं. वे दस्तावेज़ अब चार महीने से ऐसे ही उनके कार्यालय में पड़े हैं और कोई उस पर काम नहीं कर रहा है.’ उन्होंने अपनी पत्नी, जो कि एक घरेलू कामगार हैं, उन्हें भी निर्माण कामगार बोर्ड के साथ पंजीकृत करवाया हैं, और उनकी तरह उन्हें भी इससे कोई फायदा नहीं हुआ है.
अपने पंजीकरण को नवीनीकृत करवाने के लिए बार-बार चक्कर काटने के बाद भी काम के ना हो पाने से हताश, उनका कहना है कि उन्हें सरकार से कोई उम्मीद नहीं बची है. वो मानते हैं कि ‘जो लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं उन्हें लोग मवेशियों की तरह समझते हैं. किसी को उनकी परवाह नहीं है, उनकी कहीं सुनवाई नहीं होती. लॉकडाउन तो अब जा के लगाया गया है, हम तो पिछले पांच सालों से सरकार को हमारी बात सुनाने की कोशिश कर रहे हैं. यदि हम किसी वार्ड कार्यालय में जाते हैं, तो हमें भगा देते हैं. यदि हम एक अनुरोध पत्र देते हैं, तो महीने या एक साल तक इस पर कोई जांच नहीं होती है. एल&टी कंपनी द्वारा एक बार नवी मुंबई में आयोजित एक पंजीकरण शिविर के कारण हम लोग पंजीकरण करवाने करने में सक्षम रहे थे, लेकिन हमें इसका कोई लाभ नहीं मिला. जब हम पूछताछ करने जाते हैं, तो हमें केवल अगले दिन, या उसके बाद वाले दिन या उसके बाद आने वाले दिन के बारे में बताया जाता है. हमें केवल तारीखें दी गई हैं. हमें केवल यह बताया जाता है कि यह या वह अधिकारी मौजूद नहीं है. यही चलता है. कुछ भी नहीं आगे बढ़ता है.’
उन्होंने नई नौकरी मांगने के लिए लॉकडाउन से लगभग एक महीने पहले 70–80 फॉर्म थाने के साथ-साथ वार्ड कार्यालय में जमा कराए. लेकिन फिर भी, कोई फायदा नहीं हुआ. सरकार कभी भी उनकी योजनाओं को लागू करने या उनके माँगों पर काम करना ही नहीं चाहती है, ऐसे में, वह पूछते है, ‘हम ऐसे सरकार पर कैसे भरोसा करते हैं?’
दीपक कांबले, अंकित झा और आयुषी बेंगानी का योगदान. अंकित झा द्वारा अंग्रेजी से अनुवादित.
‘COVID-19 Lockdown and Resilience: Narratives from the Ground’ is a series through which we are showcasing community voices and experiences in lockdown, people’s resilience and the continued struggle for their rights. Stay tuned!
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