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टूटी हुई दीवारें, आसपास बिखरा हुआ सामान, बुलडोजर की तेज आवाज और धुंधली यादों के बीच बिलकुल तहस-नहस हो चुका हमारा घर.
2018 में प्रकाशित हाउस एंड लैंड राइट नेटवर्क की रिपोर्ट के मुताबिक 2017 में भारत के शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों से लगभग 2.6 लाख से भी अधिक लोगों का जबरन विस्थापन किया गया. चूंकि यह रिपोर्ट महज तर्कों की आधार पर जारी की गई है, मगर वास्तविक स्थिती इससे कहीं अधिक है. ए़क ओर सरकार प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत 2022 तक सभी को घर देने का वादा करती है वहीँ दूसरी तरफ लोगों को उजाडने का सिलसिला भी बदस्तूर जारी है. विस्थापन के ज्यादातर मामलों में न तो लोगों को इस बारे में पूर्व सूचना होती है और न ही उनके उचित पुनर्वास को प्राथमिकता दी जाती है.
छोटे बच्चों पर विस्थापन का बुरा असर पड़ता है. स्थायी ठिकाना न होने की वजह से हर बार नए स्थान और आसपास के माहौल से सामंजस्य बिठाने में उन्हें कठिनाई होती है.इसका उनके स्कूली जीवन और मानसिक स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है. अनधिकृत बस्तियों में लगभग 40 प्रतिशत बच्चे रहते हैं.
शहरों में आये दिन सरकारद्वारा मंजूर किये जाने वाले भारी भरकम परियोजनाओं और सुंदरता के नाम पर बड़ी संख्या में बस्तियों को तोड़ा जाता है. साथ ही मीडिया में झोपड़ी मुक्त शहर का मुद्दा भी जोरशोर से उछाला जाता है. ए़क ऐसे काल्पनिक शहर की कल्पना की जाती है जिसमें सबकुछ बेहतर हो. लेकिन किसे के घर टूटने का दर्द रास्ते पर खड़े राहगीर महसूस नहीं कर सकते. पाई-पाई जोड़कर जिस घर को बनाया हो उसे अपने सामने ही ढहते देखना शायद सबसे दुखद और बेहद तकलीफ देनेवाला दृश्य होता होगा इसमें रहने वाले के लिए.
उंची इमारतों में रहने वाले अधिकतर लोगों की नजर में ये महज सड़क पर अवैध कब्जा करने वाले लोग होते हैं. इनके प्रति उनमें कोई सहानुभूती नहीं होती. इसीलिए जब कभी इनकी बस्तियों पर बुलडोजर चलता है तो इसका विरोध करने कोई आगे नहीं आता.
जब कि जबरन बस्तियां तोडना मानवाधिकारों का उल्लंघन है. हर किसी को रहने योग्य घर उपलब्ध होना चाहिए. सरकार हाशिये के लोगों का जीवन स्तर उंचा उठाने के लिए कई किस्म की योजनाए बनाती है. लोगों के बीच आय की असमानता दूर करने की बात करती है. लेकिन लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा किए बिना इनकी बात करना कितना उचित है? जिसमें घर ए़क प्रमुख आवश्यकता है.
विकासशील देशों के लिए विस्थापन ए़क बड़ी समस्या बन गई है. आये दिन मंजूर होने वाली परियोजनाओं की वजह से इसकी संख्या बढ़ गई है. बच्चे इस विस्थापन का सबसे अधिक शिकार होते हैं. बेघर बच्चों को न तो वक्त पर भोजन मिल पाता है और न ही उनके स्वास्थ्य या अन्य जरूरतों पर कोई ध्यान देता है. कई बार बीच में पढ़ाई छोड़ देने या स्कूल न जाने की ए़क बड़ी वजह विस्थापन भी होता है.
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लाखों बच्चे बड़े होने के दौरान ही अपना घर बनते देखते हैं. लेकिन जब उनके सामने ही यह घर ढहा दिया जाये तो उनके मस्तिष्क पर इसका बुरा असर पड़ता है. जब घर बनाने और टूटने की यही प्रक्रिया उनके सामने कई बार होती है तो वे मानसिक और मनोवैज्ञानिक तौर से टूट जाते हैं. लोगों को गौरवपूर्ण जीवन जीने का संवैधानिक अधिकार है लेकिन जब लोग रातों रात बेघर हो जाये तो संविधान के इस अधिकार पर प्रश्नचिन्ह खड़ा होता है.
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विस्थापन से सिर्फ ए़क घर ही नहीं टूटता है बल्कि उसमें वर्षों से सहेज कर सुरक्षित रखी गई तमाम चीजें भी बिखर जाती हैं. कई बार स्कूली बच्चों की किताबें, स्कूल यूनिफार्म और जरूरी दस्तावेज भी गुम हो जाते हैं. विस्थापन के चलते कई परिवारों का कानूनी अधिकार भी उनसे छिन जाता है. इस वजह से उन्हें पानी, बिजली जैसी मूलभूत अधिकारों से वंचित होना पड़ता है.
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पुनर्वास के मामलों में भी पूरी तरह नियमों को ताक पर रख दिया जाता है. लोगों को पुनर्वास वाली जगह से दिक्कत होने के बावजूद उन्हें जबरन तंग मकानों में आवंटन लेने को मजबूर किया जाता है. इन जगहों पर पानी तथा बिजली की समस्या आम होती है. कई बार गंदगी तथा तंग इमारतों की वजह से इन स्थानों पर टीबी तथा अन्य महामारी फैलने का खतरा कई गुना बढ़ जाता है
अधिकतर पुनर्वास कॉलोनियां खड़ी बस्ती यानी वर्टिकल स्लम होती हैं. इनमें न तो पर्याप्त रोशनी होती है और न ही खुली जगह. इस वजह से बच्चे घरों में अकेले होने पर डरते हैं. साथ ही इन कॉलोनियां में सुरक्षा ए़क प्रमुख सवाल है. आये दिन लड़कियों से छेड़खानी तथा अभद्रता की शिकायतें सुनने में आती है. इन कॉलोनियों में लडकियों के लिए कोई खुली जगह या खेल का मैदान नहीं होता. लड़कियों को खेलने के लिए खुली जगह न होने से इनके शारीरिक विकास में बांधा आती है.
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कई पुनर्वास कॉलोनियां स्कूल से दूर बनायीं जाती हैं. इससे छोटे बच्चों को स्कूल जाने में कठिनाई होती है. उनके लिए परिवार के किसी सदस्य का अलग से होना जरूरी है. कई बार ए़क ही सदस्य पर परिवार के लिए आजीविका जुटाने और साथ ही बच्चे को स्कूल पहुँचाने की भी जिम्मेदारी होती है. इस वजह से लोगों को काफी मुसीबत होती है.
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कुछ बच्चे बीच में ही पढाई छोड़ देते हैं. वे अपने परिवार की सहायता करने के लिए कई तरह के कार्य करते हैं. कम उम्र होने की वजह से मालिकों द्वारा उनका शोषण भी किया जाता है. ज्यादातर ऐसे बच्चों से जबरन खतरनाक काम भी मालिकों द्वरा लिया जाता है. कई बार ये बच्चे अतिरिक्त कमाई या फिर नशा जैसी अपनी शौक पूरा करने के लिए कई-कई घंटे काम करने से भी परहेज नहीं करते. कई अध्ययनों से खुलासा हुआ है कि उचित पुनर्वसन न होने पाने की वजह से भी कई बच्चे बाल मजदूरी जैसे अमानवीय दंश झेलने को मजबूर हैं.
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लड़कियों के मामले में भी स्थिति बहुत बुरी है. कम उम्र में ही अधिकांश लडकियों को परिवार संभालने की जिम्मेदारी सौंप दी जाती है. घर के कई काम और छोटे भाई-बहनों की देखभाल करना इनकी हर दिन की जिम्मेदारी होती है. कुछ समय बाद ही कम उम्र में इनका विवाह हो जाता है. ससुराल में भी इसी कठिनाई के साथ वे आगे का जीवन जीने को विवश हो जाती हैं.
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विस्थापन का सिलसिला लगातार चलता रहता है. लोगों में नए घर बनाने और उसके टूटने का भय भी बना रहता है. कई लोग इसी डर के साथ जीते रहते हैं. तो कुछ के चेहरे पर दस से भी अधिक बार विस्थापन झेल चुकने का दर्द झलकता है. इन सबके बीच कोई बच्चा ऐसा भी होगा जो पहली बार अपना घर उजड़ता हुआ देखकर खुद को असहाय समझता होगा.
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Sushil Kumar, Consultant, YUVA