प्रिय इंदौर,
पिछले दो वर्षों से देश का सबसे स्वच्छ शहर,
मुझे गर्व होता है कि मैं इस शहर का एक निवासी हूँ। देश भर में स्वच्छता के विरुद्ध छेड़े गये युद्ध स्तर के अभियान को बहुत क़रीब से देखा है मैंने। मैं ही नहीं, मुझ जैसे हज़ारों लोगों ने भी। स्वच्छता के मायने क्या है? सिर्फ कचरे का ना होना? या कचरे का बनना ही नहीं? या फिर एक ऐसा वातावरण जहाँ कचरा हो, उसे हटाया जाए तथा उसे हटाने वाले लोग हों, और उसकी एक पूरी पद्धति व प्रणाली मौजूद हो? कचरा न हो ऐसा हो ही नहीं सकता, कचरा बने ही ना ऐसा भी नहीं हो सकता इसलिए आवश्यक है कि कचरे के निपटारे की एक पूरी पद्धति व प्रणाली हो जिसमें पूरे समाज की सहभागिता हो।
उस दौर में जब ‘स्वच्छता ही सेवा है’ का नारा दिया जा रहा है, ऐसे में यह सोच पाना बहुत कठिन है कि स्वच्छता अभियान में कोई समस्या भी आ सकती है और वो भी इस अभियान में एक सामाजिक वर्ग के अपवर्जन को लेकर। हम यहाँ स्वयं को शोषित सामाजिक वर्ग ही कहेंगे। समाज का एक ऐसा वर्ग जो उपेक्षित है, हाशिये पर है, जिसके घर तोड़ दिए गए हैं, जिसकी जीविका नष्ट की गयी है, जिनके बच्चे अब स्कूल नहीं जा पाते, इस समाज के युवा अपने भविष्य को लेकर असमंजस में हैं। अखबार की रिपोर्टों और सरकारी तंत्र पर भरोसा करें तो इस समाज में सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा है, पर इन पर भरोसा करना थोड़ा कठिन है। फिलहाल मेरे जीवन के निजी अनुभव इस कडवे सच को इतनी आसानी से भूलने की इजाजत नहीं देते। स्वच्छता यदि सेवा होती तो आज देश में 13657 (सरकारी आँकड़े- अतारांकित प्रश्न क्र 2242, 31–07–2018) सिर पर मैला ढोने वाले सफ़ाई कर्मचारी नहीं होते। शायद ये सरकारी आँकड़ा पूरी कहानी न बता पाए। इसकी संख्या इससे कहीं अधिक है। ख़ैर बात यह है कि हमारे प्रधानमंत्री अपनी किताब ‘करमयोगी’ में कहते हैं कि वाल्मीकि समाज के लिए मैला ढोना एक आध्यात्मिक अनुभव है। काश! फिर ऐसे आध्यात्म की हमें क्या आवश्यकता जो हर पाँच दिन में एक जान ले ले। राष्ट्रीय सफ़ाई कर्मचारी आयोग के अनुसार जनवरी 2017 से सितम्बर 2018 के मध्य 117 सफ़ाई कर्मचारियों की जान गयी है, अपना आध्यात्मिक अनुभव करते हुए। ठीक येसी ही स्थिति इंदौर शहर के उन स्वच्छताकर्मियों का भी है जिन्होंने वर्षों से इंदौर को साफ़-सुथरा बनाये रखा। शहर के वे लोग जो हर गली-चौराहों व सड़कों से कचरा उठाते हैं, उसे पृथक (अलग) करते हैं, और एक अलग व्यवसाय को जन्म देते हैं जिसे अपशिष्ट प्रबंधन (कचरा प्रबंधन) कहते हैं। मैं उसी समाज से आता हूँ, मैं यही काम करते हुए बड़ा हुआ हूँ। आप उसे कचरा बिनना कह सकते हैं, हम उसे शहर साफ़ करना कहते हैं। लोग कहते हैं कि आप जो काम करते हैं उसकी रोटी खाते हैं, जैसे लोहार लोहे की रोटी खाता है, सुनार सोने की, अफ़सर काग़ज़ की रोटी और हम कचरे की रोटी। लेकिन हम सब मिलकर एक साथ अपने-अपने मेहनत की रोटी खाते हैं, अपने-अपने हुनर की, अपने-अपने विचार की और सबसे बड़ी बात शहर व देश के प्रति अपने-अपने कर्तव्यों की। ये सफ़ाई हमारे हिस्से का कर्तव्य है।
स्वच्छ भारत अभियान के बाद से बदलाव
अपने पहले स्वतंत्रता दिवस सम्बोधन में लाल क़िले के प्राचीर से प्रधानमंत्री ने स्वच्छ भारत अभियान की उद्घोषणा की और देश में गंदगी के विरुद्ध एक नयी लड़ाई शुरू की। हमें लगा हम इस लड़ाई के सबसे बड़े सिपाही होंगे क्योंकि वर्षों से हम ही तो ये लड़ाई लड़ते आए थे। लेकिन हुआ इसके बिलकुल उलट। सिपाही तो दूर हम इस पूरी लड़ाई से ही हटा दिए गये। मैं पूरे देश की तो नहीं जानता पर मेरे शहर इंदौर में तो ऐसा ही हुआ। बात ज़्यादा पुरानी नहीं है, जब लोग 2 अक्टूबर 2014 को झाड़ू लेकर सभी रास्तों, गलियों और संस्थानों में सफ़ाई करते दिखे। अभियान के दिशानिर्देशों के अनुसार देश में क़रीब 104 करोड़ शौचालय बनने थे जो बाद में कम करके 66 लाख कर दी गयी और साथ ही हर घर से ठोस अपशिष्ट प्रबंधन (सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट) को लेकर भी प्रयास होने थे। प्रत्येक घर से कचरा इकट्ठा करने के लिए नगर निगम ने अलग-अलग सामाजिक संस्थाओं को यह ज़िम्मेदारी सौंपी और सार्वजनिक कचरा यार्ड में हम लोगों का प्रवेश तक बंद कर दिया गया। यहाँ तक कि नगर निगम ने रेसीडेंट वेलफ़ेयर असोसीएशन्स को यह निर्देश दिया कि अपने प्रांगण में हम लोगों को कचरा उठाने न दें और यदि हम ऐसा करते पकड़े जाये तो हम पर जुर्माना लगाया जाए। ये कैसा अभियान है कि एक सिपाही से लड़ने की क्षमता तो छीनी ही उसके लड़ने पर जुर्माना भी लगा दिया गया। प्रिय इंदौर, क्या इस स्वच्छता अभियान पर आपको गर्व करना चाहिए?
उसके बाद, जागरूकता के लिए सूखा कचरा-गीला कचरा और हर घर से कचरा उठाने का विज्ञापन चलाया गया। शहर भर में प्रत्येक घर से अपशिष्ट इकट्ठा होना शुरू हो गया। सूखा कचरा और गीला कचरा जैसी जागरूकता ठीक है, लेकिन क्या आपको पता है कि हम सूखे कचरे के भी 72 तरीक़ों से अलग कर सकते हैं। इससे अधिक और क्या प्रमाण चाहिए कि हम सफ़ाई के सच्चे सेनानी हैं। हमें अब संग्रहण के लिए सिर्फ डम्पिंग ग्राउंड तक ही जाने की अनुमति है, यहाँ हमें 100 रुपए प्रतिदिन की मज़दूरी मिलती है। और यह शायद कहने की आवश्यकता नहीं है कि ये डम्पिंग ग्राउंड कहाँ स्थित है और वहाँ जाने का ख़र्च वहन करना कितना मुश्किल है। इससे पहले हम जब गली-गली और सड़कों से कचरा संग्रहण करते थे तब आसानी से 300 रुपए प्रतिदिन कमा लेते थे। ये तो बात रही हमारे ऐतिहासिक व पारम्परिक व्यवसाय से हमें बाहर करने की वह भी स्वच्छता अभियान के नाम पर, साथ ही साथ उस समय जब आपको देश का सबसे स्वच्छ शहर कहा जा रहा है तो इसका मतलब ये है कि स्वच्छता से जुड़े सभी इकाइयों का ध्यान रखा गया होगा।
शहर की सड़कों से गंदगी का साफ़ हो जाना ही स्वच्छता है क्या? या बड़े से गायक से एक जागरूकता गीत गवाकर पूरे शहर में सुबह-सुबह “है हल्ला” कर स्वच्छता अभियान है? या सामाजिक संस्थाओं के सहयोग से गंदगी के साथ-साथ निपटान करने वालों को भी बाहर कर देना स्वच्छता अभियान है? मोबाइल ऐप, वेबसाइट, ट्विटर हैंडल, बड़े-बड़े पोस्टर और बैनर लगा कर लोगों के दिमाग़ में स्वच्छता में नम्बर 1 का सपना दिखा देना आपका अभियान है? आप स्वच्छ हो गये, इतने कि पूरे देश में सबसे ज़्यादा लेकिन हमारा क्या होगा यह कभी सोचा? ये हमारी पुरानी आदत है कि घर की सफ़ाई करके हम गंदगी अक्सर कहीं छुपा देते हैं, या फिर आगे बढ़ा देते हैं। इस बार भी हम अपने आदत से आगे कहाँ बढ़े हैं? अभी भी तो अपने घर की गंदगी गाड़ी में भर के डम्पिंग यार्ड में भिजवा देते हैं। पहले हम सार्वजनिक जगहों से कचरा संग्रहण कर लिया करते थे और उनको अलग करके अच्छे से प्रबंध करते थे। दरअसल हमें गंदगी से अधिक गंदगी उठाने वाले चुभते हैं। तभी तो कचरा उठाने वाली गाड़ी को आपके लोग कचरा गाड़ी और कचरा साफ़ करने वालों को कचरा वाला कहते हैं। ख़ैर, हमें आदत है इसकी अब तो हमसे वो कचरा वाला भी छीना जा रहा है, या यूँ कहूँ कि छीन लिया गया है। हम आपके लोगों की नज़रों में कितना चुभते हैं, ये इस बात से पता चलता है कि ना आपको हमारा आपके घरों तक आना पसंद है और ना हमारा अपने घरों में रहना। तभी तो शहर के बीच में से हमारी बस्ती को शहर से उजाड़ कर दूर फेंक दिया गया।
कई अख़बारों और अलग अलग न्यूज़ एजेन्सी ने इस पेर ख़ूब छापा कि कैसे इंदौर सबसे स्वच्छ शहर बना? उन्होंने कहा कि एक कर्मठ नगरनिगम निदेशक, एक ईमानदार मेयर और इच्छा शक्ति के कारण इंदौर ने स्वच्छता के नए आयाम गढ़े। वो इस बात को कहना भूल गये कि हज़ारों परिवारों के पुनर्स्थापन, दो बस्तियों का उजड़ना और ना जाने कितने ही स्वच्छताकर्मियों की जीविका छीनने के बाद यह तमग़ा मिला है। शहर का साफ़ दिखना और शहर में कचरे का ना दिखना दो अलग-अलग बातें है। हमने अभी सिर्फ गंदगी को निपटाने का काम सीखा है, जिसमें साफ़ करने वालों को भी निपटा बैठे हैं।
पुनर्स्थापन के बाद का हमारा जीवन
2015 के बाद का दौर हम शायद ही भूल पायें। आपको स्मार्ट और स्वच्छ बनाने के चक्कर में हमारे घरों का टूटना अगर त्रासदी नहीं है तो क्या है? एक शहर को शहर कौन बनाता है? अलग -अलग ऑफ़िसों में काम करने वाले पढ़े लिखे कामगार या हम लोग जो हर दिन अपने घर से यह सोचकर निकलते हैं कि आज हमारे घर से निकलने पर हमारा घर चल पाएगा। इसका जवाब शायद आप कभी ना दे पाएँ क्योंकि आपको हमारी ज़रूरत है और उनका मोह। ज़रूरत और मोह में आप अक्सर मोह को चुन कर आगे बढ़ जाते हैं, और ज़रूरत हमेशा ज़रूरतमंद ही बना रह जाता है और अक्सर उसकी ज़रूरतों को पूछे बिना आप ज़रूरतें पूरी करने में लग जाते हैं। जैसे हमारे लिए बनाए गये नए घर। भूरि टेकरी, बड़ा बांगर्दा, और नैनोद जैसे शहर से दूर क्षेत्रों में हमारे लिए घर बनाए गये जहाँ हम अपने और परिवार के सपनों को नए आयाम देंगे। बचपन से एक सपना ही तो पाल के रखते हैं कि अपना घर होगा अपने मेहनत की रोटी। पर वो घर किस काम का जो रोटी ही छीन ले। यह सच है, पिछले कुछ वर्षों से हम यही झेलने को मजबूर है।
प्रिय इंदौर, शायद आप नहीं जानते होंगे कि कैसे हमें आपके दिल से निकालकर क़दमों में डाल दियाया। कहाँ हम शेखर नगर के वासी शहर के मध्य में अपने सपनों को अंगड़ाई लेते देखते थे। अचानक ही हम शहर से दूर खदेड़ दिए गए। आज हमरा सारा दिन ए़क छोटे से कमरे में अपने परिवार के भविष्य को लेकर चिंता में ही कटती है। आखिर क्या हुआ इंदौर आपको? क्या इतना मुश्किल था हमें शहर में देख पाना? क्या इतना आसान था हमें शहर से दूर फेंक पाना? हम लोग शहर के मध्य से निकलते थे सुबह-सुबह, अपने बच्चों को स्कूल भेजकर। शहर साफ़ करने को। दोपहर तक जगह-जगह से कचरा इकट्ठा करते, फिर शाम तक अलग करके उसे आगे बढ़ा देते। लेकिन अब? बांगर्दा से आने के लिए हमें ऑटो करना पड़ता हैं क्योंकि हमें हमारे कचरे के बोरे के साथ कौन बस में चढ़ने देगा? वो आपको याद है ना हम कौन हैं? और ऑटो किया तो उसका किराया देना पड़ेगा। हमारी कमाई ज़रूरतों वाली, और ख़र्चे मोह वालों से भी ज़्यादा। अगर सबसे कम मान कर भी चलें तो एक दिन काम पर जाने और काम से वापस आने के लिए हमें 150 रुपए लगते हैं, रोज़ की कमाई 100 रुपए सिर्फ। इस पर अगर ग़लती से भी कभी शहर में कचरा उठाते पकड़े गए तो जुर्माना अलग से भरना पड़ता है। फिर जब हम काम करने जाते हैं तो बच्चे यहाँ घर पर अकेले छूट जाते हैं, तीसरी-चौथी मंज़िल पर उनका अकेला रहना, बहुत डर लगता है। इसका नतीजा ये हुआ है कि अब घर का सिर्फ ए़क ही सदस्य काम पर जा पाता है ताकि ख़र्च भी कम हो और घर पर बच्चे भी सुरक्षित रहें। बच्चे ही क्यों, पानी आने का कोई टाइम नहीं है और ना ही कोई स्कूल और दवाखाना घर के नजदीक है। कोई भी सरकारी काम हो तो एक दिन काम छोड़ना ही पड़ता है पूरे दिन लाईन में लगकर सरकारी काम होने का इंतज़ार करना पड़ता है। ऐसे में हम कमाएँ या पूरे दिन यही करते रहें, समझ नहीं आता।
हमारा जीवन बहुत सरल था इंदौर, काम पर जाते, पैसा मिलता ख़र्च करते और ख़ुश रहते। काम भी वही करते जो पसंद था और जिसमें पारंगत थे। स्वच्छता हम लोगों का भी मिशन है, आपके मिशन से ज़्यादा से हमारा मिशन है। लेकिन अब ऐसा नहीं है। हमारे घर के टूटने और पुनर्स्थापन के विरुद्ध अदालत का सहारा लिया गया। अदालत ने हमारी जीविका के सवाल पर नगर निगम को फटकार लगायी और उसके बाद नगर निगम ने हमारे लिए जीविका का नया स्त्रोत ढूँढना शुरू किया। अदालत को रिपोर्ट तलब करने के लिए नगर निगम ने कहा कि उन्होंने कुल 400 स्वच्छताकर्मियों को मैरिजगार्डन, सार्वजनिक उद्यानों और डम्पिंग यार्ड वग़ैरह पर नौकरी दी है लेकिन कुछ ही दिनों में रिपोर्ट तलब के ठीक बाद उन्हें नौकरी से निकाल भी दिया गया। कुछ लोगों को तो इस दौरान का बक़ाया वेतन भी नहीं दिया गया। इसी के साथ 800 स्वच्छताकर्मियों को ब्यूटीशियन, टेलरिंग जैसे कौशल विकास ट्रेनिंग दिए गये लेकिन इसके बाद उनके रोजगार की कहीं कोई चर्चा नहीं की गई। इन प्रयासों के लिए हम धन्यवाद कहें या अपशब्द बोलें क्योंकि इससे ना हमें कुछ फ़ायदा हुआ और ना ही नगर निगम को। हमारे साथ आखिर क्या हुआ हमें कुछ भी समझ नहीं आया। सोचिए अगर किसी दिन अचानक ए़क दुकानदार को ब्यूटीशियन की ट्रेनिंग दी जाये और उम्मीद करें कि यह उसके रोजगार की लिए सहायक होगा तो यह हमारी भूल है। हर इंसान में ए़क विशेष गुण होता है। अगर हमने कभी अपनी कॉलोनी ब्यूटी पार्लर खोल भी लिया तो क्या वहां कोई ग्राहक भी आएगा, असल सवाल तो यही है। ये तो हमसे ज़्यादा उन संस्थाओं के लिए था जिन्हें कौशल विकास योजना और शहरी आजीविका मिशन के अंतर्गत ठेका दिया गया था। हमारी पहचान हमारे काम से है, जो काम हम जानते हैं वो हमसे बेहतर कौन जान सकता है। फिर हमें दूर रख कर हमारे ही शहर को स्वच्छ बनाने की योजना बनाना हमसे धोखा नहीं तो और क्या है?
आगे की राह और भी कठिन
हमारे समाज को कभी अपने अंदर ढूँढने की कोशिश करना, उस नक़्शे पर जो देश के नक़्शे में आज कल चमकने लगा है। हम कहाँ बसे हुए हैं आज कल? बुध नगर (यूँ ही किनारे और मध्य के बीच), अन्ना भाऊ साठे नगर (किनारे पर), बड़ा बांगर्दा (किनारे पर), भूरि टेकरी (किनारे पर), नैनोद (किनारे पर), पालदा (यूँ ही कहीं मध्य और किनारे के बीच), पंचशील नगर (किनारे पर), भीम नगर (किनारे पर) और ना जाने कितने ही किनारों पर बसी हैं हमारी बस्तियाँ। शहर से बर्खास्त लेकिन फिर भी शहर की सफ़ाई में योगदान देने को तत्पर। साथ ही जुर्माने के भागीदार। ये कैसा इंसाफ़ है इंदौर? जवाहर लाल के नाम पर हमारे घर छीन लिए गये, गांधी के नाम पर हमारी जीविका, और अब आगे क्या होगा, कुछ पता नहीं? क्या बाबा साहेब के नाम पर हमारे अधिकार भी छीने जाएँगे या भगत सिंह के नाम पर हमारी जान ली जाएगी? इस आगे की सोच कर मैं परेशान हूँ। हमने सोचा था कि हमारी अगली पीढ़ी अगर सफ़ाई में योगदान ना दे पाए तो कोई बात नहीं परंतु शिक्षा तो ग्रहण कर लेगी, लेकिन नहीं, एक बुलडोज़र ने हमें एहसास करा दिया कि हमारे सपने आज भी किसी वातानुकूलित कमरे में काग़ज़ों पर लिखे जाते हैं। हमें कैसा घर चाहिए, हमें कौन सा काम करना चाहिए, हमें कैसी ज़िंदगी जीनी चाहिए। सिर्फ़ इसलिए कि हम आज भी ज़रूरत हैं, शहर का मोह नहीं बन पाए हैं। अगले साल गांधी को आये 150 साल और बाबा साहेब के 117 वर्ष पूरे हो जायेंगे। ये साल विचार और अधिकार के हैं। और शायद आप फिर से सबसे स्वच्छ शहर बन जाओ लेकिन हमारा क्या होगा? हम यूँ ही किनारे पर पड़ें सोंचते रहेंगे कि आगे क्या होगा हमारा? क्या इसी तरह स्वच्छता अभियान में हम अस्वच्छ बने रहेंगे। शहर से दूर, शहर के लिए।
हमें उम्मीद है अगली बार जब स्वच्छता सर्वेक्षण की टीम आपका सर्वेक्षण करेगी तो एक अंगड़ाई ज़रूर लेना, एक यह बताने के लिए तुम्हें साफ़ दिखाने के लिए एक सामाजिक वर्ग को ही शहर की सीमा से मिटा दिया गया। ऐसा करेंगे ना, हम सब के लिए, जिन्होंने वर्षों से तुम्हें साफ़ रखा है, पीठ पर बड़ा सा बोरा टाँगना हो या कमर तक नाले में घुसना कभी अपने काम से समझौता नहीं किया है और न ही कभी इस काम को देखकर नाक भैंवे सिकोड़ी है।।
सप्रेम धन्यवाद।
ज़िंदाबाद। जय भीम।
आपका अपना,
ए़क सफाई कर्मी
Ankit Jha, Project Associate, & Anand Lakhan, Consultant