मुंबई को बहुत से अलग-अलग नामों से जाना जाता है और कई लोग मुंबई को सभी की मायानगरी भी कहते हैं। मुंबई कभी सोती नहीं है, मुंबई किसी को भूखा नहीं सुलाती है – यह हमने देखा भी है और जाना भी, लेकिन पिछले कुछ दिनों से कोरोना ने मुंबई को सुला दिया है। अब मुंबई तो सो गई पर उसने बहुत सारे परिवारों को भूखा सुला दिया है।
मुंबई से ही सटे वसई-विरार शहर है जिनकी जनसंख्या लगभग १० लाख से भी ज़्यादा है और वसई-विरार शहर पूरी तरह से मुंबई पर निर्भर है। वसई-विरार में लगभग ३ लाख से ज़्यादा परिवार झोपड़पट्टियों में रहते हैं। उनका कमाने का ज़रिया मजदूरी, फेरी का काम, रिक्षा चालन, टॅक्सी चालन आदि है। इस पर ही उनका घर चलता है। नालासोपारा पूरे वसई-विरार में सबसे बड़ा क्षेत्र है। सबसे बड़ी आबादी नालासोपारा की झोपड़ियों में बसी है। बहुत सारी बस्तियों में पानी, बिजली, सड़क, शौचालय आदि की सुविधाएँ नहीं हैं । बहुत सारे परिवारों के पास तो राशन कार्ड भी नहीं है कि उन्हें राशन मिल सके। बहुत सारे परिवार यहाँ प्रवासी हैं और बहुत सारे लोग तो यहाँ बस कमाने के उद्देश्य से ही आते हैं। यह लोग कहीं पर भी रह लेते हैं, वहाँ भी, जहाँ जीवन आवश्यक सुविधाएँ भी नहीं हैं । नालासोपारा में ऐसी ही एक भीमनगर नाम की बस्ती है जो वनविभाग की जगह पर बसी है । पिछले ३५ सालों से लोग यहाँ पर रह रहे हैं । भीमनगर में पानी की बहुत ही बड़ी समस्या है । सार्वजनिक शौचालय की सुविधा भी नहीं है । रास्ते और स्ट्रीट लाईट भी नहीं हैं ।
नालासोपारा की भीमनगर बस्ती में ‘युवा’ संस्था पिछले ८ महीनों से लोगों के अधिकारों को लेकर उनका संघटन खड़ा करने के लिए काम कर रही है। भीमनगर बस्ती में युवा ने मूलभूत दस्तावेज़ों से लेकर मूलभूत सेवाएँ देने तक का बढ़िया प्रयास किया है । बस्ती में महिलाओं, युवकों और स्थानिक संघटन के साथ, लोगों को उनके अधिकारों के प्रति जागृत करने का काम युवा कर रही है । युवा बस्ती विकास प्रक्रिया में सहभागिता मूल्य को ध्यान में रखते हुए हर एक प्रक्रिया पूरी करती है और साथ ही साथ युवा लोगों का मनोबल बढ़ाने का भी काम करती है ।
कोरोना जैसी वैश्विक महामारी ने भारत में एक दिन का जनता कर्फ्यू और उसके बाद एक लम्बा लॉकडाऊन लागू करने पर मजबूर किया । लॉकडाऊन होने के कारण, यहाँ की बस्तियों में जो मजदूर, निराधार, विकलांग, विधवा और ज़रूरतमंद लोग रहते हैं, उनके सामने पेट भरने का सबसे बड़ा सवाल खड़ा हुआ । ऐसी परिस्थिति में सरकार कदम उठा रही थी लेकिन प्रक्रिया बहुत धीमी थी । “लोगों को राशन की ज़रूरत है और हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं”-यह सवाल बार-बार दिमाग में आ रहा था । संस्था स्तर पर लोगों को राशन देने का निर्णय होने के तुरंत बाद हमने छोटा सर्वे शुरू किया और ८ दिन के अंदर युवा ने ५१३ परिवारों को राशन की मदद पहुँचाई लेकिन यहाँ के जो स्थानिक राजनैतिक प्रतिनिधि हैं, उन्होंने राशन बाँटने में बहुत समस्याएँ लाईं । “संस्था यहाँ इतना अच्छा काम करेगी तो लोग हमें पूछेंगे भी नहीं…” इस डर से उन्होंने धमकी देने की भी कोशिश की । लोगों को साथ लेकर युवा ने राजनैतिक प्रतिनिधि को परिस्थिति का आकलन करके दिया और उसके बाद राशन बाँटा गया ।
जब एक साथी ने शुक्रिया अदा करते हुए कहा कि युवा के राशन बाँटने की वजह से मेरे घर में आज खाना बन रहा है तो सुनकर बहुत बुरा लग रहा था क्योंकि भीमनगर में बहुत सारे ऐसे बुजुर्ग हैं, जो अकेले रहते हैं, जिनका कोई सहारा नही है । ये राशन जब उनको मिला, तो उनको कुछ दिन सुकून की रोटी मिली।
सुबह ६ बजे से लोग फोन करके राशन की मांग करते थे । सुनकर लग रहा था कि ये राशन इन लोगों के लिए कितना महत्वपूर्ण है । जब राशन बाँटा तो बहुत सारे लोगों के चेहरे पर खुशी नज़र आई।
ये सब परिस्थिति का हम जब अनुभव ले रहे थे, देख रहे थे, तब ऐसा लग रहा था कि अगर लॉकडाऊन ज़्यादा दिनों तक चलता रहा, तो लोग कोरोना से कम और भूख से ज़्यादा मरेंगे ।
Arvind Lokhande
कृतिका मिश्रा द्वारा समीक्षित