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ज़बरन बेदख़ली के विरुद्ध पथ विक्रेताओं के साथ कैसे कार्य करें

By August 14, 2021December 23rd, 2023One Comment

एक बार बेंगलुरु के एक रिहायशी इलाक़े के पास कुछ फल, सब्ज़ी, कपड़े प्रेस और जूता पोलिश की क़रीब 15 छोटी-छोटी गुमटियां व ठेले लगे रहते थे। एक दिन उस रिहायशी इलाक़े के एक सोशल मीडिया ग्रूप में संदेश आया कि इलाक़े में चोरी की वारदातें बढ़ गयी हैं, घर से बाहर निकलना भी मुश्किल होता जा रहा है। फिर क्या था, किसी अतिउत्साहि रहवासी ने नगर निगम को फ़ोन कर दिया, नगर निगम ने पुलिस के साथ मिल कर सभी ठेले और गुमटि वालों को वहाँ से हटा दिया। जब पुलिस से कारण पूछा गया तो उन्होंने कहा नगर निगम ने कहा था, नगर निगम से पूछा तो कहा अतिक्रमण हटाया है लोगों कि शिकायत थी। यहाँ दो शब्दों पर ध्यान देना आवश्यक है ‘शिकायत’ व ‘अतिक्रमण’। दैनिक समाचार पत्रों, टीवी न्यूज़ या सोशल मीडिया ख़बरों में जब भी हम बाज़ार में रेहड़ी-पटरी वालों पर हुई पुलिसिया या प्रशासन्त्मक कार्रवाई को काफ़ी आसान शब्दों में ‘अतिक्रमण के विरुद्ध’ कार्रवाई कह दिया जाता है और कई बार कारण होता है लोगों की शिकायत। यह शिकायत करने वाले लोगों को हो सकता है ना पता हो, परंतु क्या प्रशासन को भी यह नहीं पता होता कि 2014 में पारित हुए पथ विक्रेता क़ानून के पथ विक्रेता अब अतिक्रमण की श्रेणी में नहीं आते हैं? पथ विक्रय उतना ही वैधानिक व्यवसाय है जितना कि कम्पनी ऐक्ट के अंदर पंजीकृत कम्पनी। फिर ऐसा क्या है जो पथ विक्रय को अभी भी इतना असहाय व अतिक्रमण की श्रेणी में समझा जाता है? जवाब है ‘पूर्वाग्रह’, पथ विक्रय का असंगठित स्वरूप और क़ानून के समझ की कमी। यहाँ पूर्वाग्रह का मतलब है पथ विक्रेताओं के साथ लोगों, प्रशासन व पुलिस का ऐतिहासिक व्यवहार व सम्बंध।

ज़बरन बेदख़ली क्या है?

पथ विक्रेताओं के ज़बरन बेदख़ली की कोई ठोस परिभाषा नहीं गढ़ी गयी है, इसे हम बस्तियों व आवास की बेदख़ली से जुड़ी संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार के उच्चयोग द्वारा दी गयी परिभाषा से समझ सकते हैं, जिसके अनुसार ‘लोगों की इच्छा के विरुद्ध लोगों का उनके रहने के स्थान से स्थायी या अस्थायी रूप से बिना किसी वैधानिक सुरक्षा व वैकल्पिक व्यवस्था के बेदख़ल करना ज़बरन बेदख़ली कहलाता है।’ इस परिभाषा में यदि हम रहने के स्थान की जगह कार्य करने का स्थान लिखें तो पथ विक्रेताओं के बेदख़ली की परिभाषा बन जाती है।

इसके अलावा पथ विक्रेता क़ानून 2014 के अध्याय 4 धारा 18 में पथ विक्रेताओं के पुनर्स्थापन व बेदख़ली को लेकर बात कही गयी है, परंतु उसमें एक तय प्रक्रिया दी गयी है जिसमें शामिल ना हो पाने पर ही पथ विक्रेताओं को पूर्व नोटिस के साथ बेदख़ल किया जा सकता है। समझने वाली बात यह है कि कई शहरों में अभी यह प्रक्रिया पूरी नहीं की जा सकी है।

बेदख़ली के कारण

किसी भी पथ विक्रेता, रेहरी-पटरी व ठेला व्यापारी व फुटपाथ विक्रेता के अपने विक्रय के स्थान से बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था के ‘स्थायी’ या ‘अस्थायी’ विस्थापन को ‘बेदख़ली’ कहते हैं। यूँ तो पथ विक्रेताओं के बेदख़ली के कोई तय कारण नहीं हैं, परंतु कुछ महत्वपूर्ण कारण ऐसे होते हैं जिसंके कारण स्थायी या अस्थायी बेदख़ली किए जाते हैं।

कुछ महत्वपूर्ण कारण जिसके तहत पथ विक्रेताओं को हटाया जाता है:

  • ग़ैर विक्रय ज़ोन में विक्रय करना: पथ विक्रेताओं के बेदख़ली का सबसे बड़ा कारण ग़ैर विक्य क्षेत्रों में उनका विक्रय करना होता है। हालाँकि 2013 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए आदेश में यह स्पष्ट कहा गया कि 09–09–2013 को दिए आदेश के पूर्व सभी आदेश मान्य नहीं होंगे व केंद्र सरकार एक क़ानून लाएगी जिसके तहत विक्रय ज़ोन तय किए जाएँगे। लेकिन आदेश के 8 साल व क़ानून के सात साल बाद भी स्थानीय नगर निकाय पुराने आदेशों व नियमों के मुताबिक़ ही काम कर रहे हैं, जिसके कारण बड़ी मात्रा में पथ विक्रेताओं को उनके स्थान से हटा दिया जाता है, और क्योंकि हमारी न्यायव्यवस्था का ‘adversarial अर्थात् विरोधात्मक’ प्रकृति की होती हैं, जिसके कारण किसी एक मामले में पेश किए गये वक्तव्यों के दम पर ही निर्णय लेती हैं, ऐसे में इस क़ानून व आदेश उन तक नहीं पहुँच पाती है। ग़ैर विक्रय ज़ोन से आशय ऐसे स्थानों से हैं जहाँ प्रशासनात्मक आदेशों द्वारा विक्रय करने की मनाही हो। यह आदेश स्थायी व अस्थायी दोनों तरह के हो सकते हैं।
  • भीड़भाड़ या अधिक घनत्व वाले इलाक़े में विक्रय करना: ग़ैर विक्रय ज़ोन के अलावा भी शहर व क़स्बों में ऐसे इलाक़े होते हैं जो काफ़ी भीड़भाड़ वाले होते हैं या जहाँ पर गाड़ियों की भीड़ होती हैं। ऐसे स्थानों पर प्रशासन कुछ निश्चित समय के लिए या स्थायी रूप से भी पथ विक्रय की मनाही कर देता है। हालाँकि कई मामलों में पथ विक्रय उस स्थान पर कई वर्षों से लगातार चला आ रहा होता है, ऐसे में पथ विक्रेताओं को उन स्थानों से बेदख़ल कर दिया जाता है।
  • नागरिक सुरक्षा के लिए अस्थायी विस्थापन: यह कई बार शहरों में अस्थायी व्यवस्था के लिए किया जाता है, लेकिन कई बार इसे एक नियम की तरह मान लिया जाता है। जैसे देश में 15 अगस्त या 26 जनवरी के आस पास सुरक्षा के लिए कुछ स्थानों से पथ विक्रेताओं को हटा दिया जाता है। कुछ मामलों में अदालत के आदेश से भी सुरक्षा कारणों से पथ विक्रेताओं को हटाया जाता है।
  • सौंदर्यिकरण के कारण: शहरों को स्वच्छ व साफ़ रखने या किसी योजना के तहत किसी इलाक़े के सौंदर्यीकरण करने के लिए पथ विक्रेताओं को उनके स्थान से बेदख़ल कर दिया जाता है। कई बार नालों की सफ़ाई, रोड चौड़ीकरण, वृक्षरोपण और यहाँ तक कि फ़ुटपाथ के मरम्मत के लिए भी पथ विक्रेताओं को उनके स्थान से बेदख़ल कर दिया जाता है। वर्तमान समय में कई केंद्रीय व स्थानीय योजनाओं के अंतर्गत भी पथ विक्रेताओ को सौंदर्यिकरण के नाम पर विस्थापित किया जाता है।
  • अतिक्रमण हटाने के कारण: स्थानीय नगर निकायों के लिए यह एक नियमित कार्रवाई है जिसके तहत नगर निकाय विभिन्न बाज़ारों व इलाक़ों से पथ विक्रेताओं को अतिक्रमण साफ़ करने के नाम पर हटाते हैं। अतिक्रमण से आशय किसी शहर या कस्बे में सरकारी नियमों व प्रावधानों के उल्लंघन से निर्मित या स्थापित किसी भी स्थायी या अस्थायी संरचना से है।
  • कुछ अन्य कारण: इन सब के अतिरिक्त कुछ अन्य कारण भी हैं जिनको लेकर पथ विक्रेताओं को उनके विक्रय करने के स्थान से बेदख़ल किया जाता है। इसमें महत्वपूर्ण है किसी शहरी विकास योजना के अंतर्गत पथ विक्रेताओं को एक स्थान से हटा कर दूसरी जगह स्थानांतरित किया जाता है, या कई बार स्थानांतरित भी नहीं किया जाता है, वहीं दूसरा यह भी है कि स्थानीय लोगों के शिकायत पर भी पथ विक्रेताओं को बेदख़ल किया जाता है। इसके साथ यदि किसी पथ विक्रेता या पथ विक्रय बाज़ार में मास्टर प्लान का उल्लंघन हो रहा है, उस समय भी बेदख़ली की जा सकती है। इन अन्य कारणों में कुछ ऐसे कारण भी हैं जो कि कुछ बाज़ार विशेष होते हैं या शहर विशेष। हर शहर की अपनी व्यवस्था होती है व इन व्यवस्थाओं में कुछ अनौपचारिक व्यवस्थाएँ भी बन जाती है जिसमें पुलिस व नगर निगम अधिकारियों के साथ पथ विक्रेताओं के सम्ब्न्ध महत्वपूर्ण हैं। एक ऐसी ही अनौपचारिक व्यवस्था में पथ विक्रेताओं को पुलिस व नगर निगम अधिकारियों से तब तक ख़तरा नहीं होता है जब तक व्यवस्था में बदलाव नहीं आ जाता है। यह बदलाव अधिकारियों के तबादले से जुड़ी हो सकती है, या फिर व्यवस्था में तय क़ीमत से अधिक की वसूली पर। यह कारण काफ़ी व्यावहारिक हैं व सबसे अधिक मान्य कारण भी हैं, इन कारणों से ही उपरोक्त लिखे वैधानिक कारण निकल कर आ जाते हैं। इसी के साथ पथ विक्रेताओं के मध्य आपसे रंजिश भी कई बार बेदख़ली को जन्म देती है, जिसमें एक पथ विक्रेता दूसरे पथ विक्रेता के विरुद्ध शिकायत कर दे या फिर दूसरे पथ विक्रेता पर कोई अन्य दोषारोपण भी कर दे।

पथ विक्रेताओं में सबसे अधिक शोषण रिहायशी इलाक़ों में ठेला लेकर जाने वाले विक्रेताओं का होता है जिसका मुख्य कारण उनका सामूहिक रूप से विक्रेताओं से अलग होते हैं व किसी भी तरह के शिकायत के लिए आसानी से पकड़े जाते हैं। रिहायशी इलाक़ों में वह अपने बाज़ार से दूर होते हैं व लोगों का उनके प्रति व्यवहार भी अलग होता है।

बेदख़ली के समय क्या कर सकते हैं?

केंद्रीय क़ानून के बनने के बावजूद अभी पथ विक्रेताओं की बेदख़ली रूकी नहीं है, व बड़े बड़े शहरों में भी लगातार दिशानिर्देशों के उल्लंघन करते हुए पथ विक्रेताओं को बेदख़ल किया जाता है। ऐसे में महत्वपूर्ण है कि पथ विक्रेताओं को कुछ महत्वपूर्ण रास्तों की जानकारी हो जिसके माध्यम से वह उस बेदख़ली को स्वयं रोक सकते हैं, या कानूनी सहायता लेकर इसे पूरे बाज़ार के लिए रोका जा सकता है।

  • सामान की ज़ब्ती व बेदख़ली में अंतर: पथ विक्रेता क़ानून के अनुसार सैद्धांतिक रूप से किसी भी पथ विक्रेता को उचित कारण, व वैकल्पिक व्यवस्था के बेदख़ल किया ही नहीं जा सकता। अगर किसी पथ विक्रेता को बेदख़ल किया भी जा रहा है तो उसे राज्य के नियम व योजना के अनुसार उचित नोटिस देने के बाद ही हटाया जा सकता है। इस नोटिस में लिखे समय अंतराल में अगर पथ विक्रेता नहीं हटते हैं तो योजना के दिशानिर्देश के अनुसार उनकी सामान ज़ब्त कर उन्हें हटाया जाता है। इस तरह बेदख़ली एक प्रक्रिया है व सामान ज़ब्ती उस प्रक्रिया का एक हिस्सा। सामान ज़ब्त करना बेदख़ली का एक तरीक़ा है। अलग अलग राज्यों ने अपनी योजनाओं में सामान ज़ब्त करने के लिए भी विस्तृत प्रक्रिया बतायी है। उदाहरण के लिए दिल्ली की योजना में सामान ज़ब्त करने के लिए भी एक फ़ॉर्म है, जिसे कि अधिकारी द्वारा भरना होता है व भरते समय पथ विक्रेता व एक अन्य गवाह का होना ज़रूरी है। ज़ब्त हुए सामान को छुड़ाने व उसके अधिकारियों के पास ज़ब्त रहने की भी प्रक्रिया तय है। वहीं मध्य प्रदेश की योजना में सामान ज़ब्ती को लेकर कुछ भी नहीं कहा गया है। हर बार सामान की ज़ब्ती बेदख़ली नहीं होती है, व हर बेदख़ली सामान ज़ब्त कर ही नहीं की जाती है।
  • प्रशासन से बातचीत व ऐड्वकसी: पथ विक्रेता क़ानून का अध्याय 2 व अध्याय 4 बेदख़ली से जुड़े किसी भी तरह की कार्रवाई व हस्तक्षेप के लिए महत्वपूर्ण है। एक तरफ़ जहाँ अध्याय 4 बेदख़ली व उससे पहले की प्रक्रिया को विस्तार से समझाती है, वहीं अध्याय 2 की धारा 3 (3) में पथ विक्रेताओं को बिना प्रक्रिया पूरी किए हुए हटाए जाने पर प्रतिबंध लगाती है। अतः प्रशासन से इस मुद्दे पर बातचीत की जानी चाहिए कि प्रशासन द्वारा पथ विक्रेताओं को ऊपर दिए गये किसी भी कारण से यदि हटाया जा रहा है तो उनके दो महत्वपूर्ण अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है। इसलिए आवश्यक है कि सबसे पहले राज्य स्तर पर नियम बने, फिर शहर व निकाय स्तर पर टाउन वेण्डिंग कमिटी बने, फिर स्कीम आए, सर्वे हो, विक्रेताओं को वेण्डिंग प्रमाण पत्र मिले, विक्रय व ग़ैर विक्रय ज़ोन तय हों, उसके बाद जिन पथ विक्रेताओं के पास इन सभी प्रक्रियाओं को पूर्ण करने के बाद उचित प्रमाण नहीं हैं, तो उन्हें या तो बेदख़ल किया जाए या फिर प्रक्रिया में शामिल किया जाए। यह बात प्रशासन तक पहुँचनी चाहिए कि 2014 क़ानून के बाद से पथ विक्रेता अतिक्रमण मात्र कह कर बेदख़ल नहीं किए जा सकते व उनके अधिकारों का उल्लंघन एक वैधानिक उल्लंघन है।
  • सीज़र मेमो: कई शहरों में यह देखा गया है कि पथ विक्रेताओं को उक्त प्रक्रिया पूरी किए बिना ही हटाया जा रहा है व पुरानी नीतियों व नियमों का हवाला दे कर अदालत से भी इसके लिए आदेश ले लिए जाते हैं। अदालत से आदेश की सूरत में प्रशासनिक ऐड्वकसी थोड़ी मद्धम पर सकती है, व ऐसे में आवहस्यक है कि हम पथ विक्रेताओं की बेदख़ली के प्रमाण एकत्रित करें। यह प्रमाण है सीज़र मेमो। सीज़र मेमो वास दस्तावेज़ है जिसे पथ विक्रेताओं के सामान की ज़ब्ती के समय प्रशासन की ओर से ज़ब्ती के सबूत के रूप में दिया जाता है व उसमें कितना सामान, कब, कहाँ से, किसके द्वारा ज़ब्त किया गया इसका ज़िक्र होता है। सीज़र मेमो के दम पर ज़ब्त किए गये सामान को उचित दंड भरकर वापस छुड़वाया जा सकता है। साथ ही सीज़र मेमो यह भी प्रमाणित करता है कि निश्चित दिन पर प्रशासन द्वारा ज़ब्ती की कार्रवाई की गयी थी, अतः उस दिन पथ विक्रेता उस दिन अपना काम कर रहे थे। इस तरह पथ विक्रेताओं को अपने विक्रय स्थान के सक्रिय होने के लिए, पथ विक्रय करने के प्रमाण के लिए व प्रशासन द्वारा क़ानून के उल्लंघन करने के प्रमाण के लिए सीज़र मेमो की माँग करना बहुत ज़रूरी है। जिन बाज़ारों में कोर्ट के आदेश पर सामान की ज़ब्ती कर पथ विक्रेताओं की बेदख़ली हो रही हो, उन बाज़ारों के विक्रेताओं का ‘जब तक मेमो नहीं, तब तक ज़ब्ती नहीं’ का नारा होना चाहिए।

उदाहरण के लिए दिल्ली के उत्तरी दिल्ली नगर निगम क्षेत्र में लगने वाले ऐतिहासिक मीना बाज़ार को सितम्बर 2019 में हटाया जाने लगा। इसके हटाए जाने से 500 से भी अधिक पथ विक्रेताओं पर जीविका का संकट आ खड़ा हुआ। मीना बाज़ार सुप्रसिद्ध जामा मस्जिद के सामने लगने वाले कई बाज़ारों में से एक है जो रविवार को एक साप्ताहिक बाज़ार के रूप में जाना जाता है। ऐतिहासिक रूप से तो यह बाज़ार मुग़ल के समय से ही अलग-अलग स्वरूपों में लगता आ रहा है। जब 2019 में इस बाज़ार के विक्रेताओं के सामान ज़ब्त कर इसे हटाया जाने लगा तो स्थानीय पथ विक्रेताओं के साथ बैठक कर नैशनल हॉकर फ़ेडरेशन व युवा संस्था ने रणनीति बनायी कि जब तक मामला कोर्ट में विचाराधीन रहेगा तब तक यहाँ से पथ विक्रेताओं का सामान ज़ब्त नहीं होने देंगे। इत्तेफ़ाक से उसी सप्ताह दिल्ली का स्कीम भी लागू हुआ और उसमें दिए गये प्रक्रिया के अनुसार प्रति रविवार पथ विक्रेता बाज़ार लगाते (इस दौरान वह अपने सबसे कम क़ीमती व ख़राब हो चुके सामान ही रखते), नगर निगम के अधिकारी सामान ज़ब्त करने आते, और एक ही माँग होती सामान उठाया जाए लेकिन सीज़र मेमो दिया जाए। सामान ज़ब्त किया जाता और पथ विक्रेता ज़ब्ती गाड़ी को घेर कर बैठ जाते जब तक मेमो नहीं तब तक कार्रवाई पूरी नहीं। काफ़ी हंगामे के बाद मेमो दिया जाता, सारे हस्ताक्षर व जानकारी के साथ। सामान ज़ब्त होता उसे स्कीम के अनुसार छुड़वाया जाता। इस सब प्रक्रिया से मेमो की माँग एक जायज़ माँग बन गयी व जब मामला स्थानीय सब डिविज़नल मजिस्ट्रेट (SDM) के पास पहुँचा तो नगर निगम ने कहा यहाँ कोई बाज़ार लगता ही नहीं, पथ विक्रेताओं ने अपना पक्ष रखते हुए मेमो की प्रतियाँ भेजी व SDM ने नगर निगम को बाज़ार को फिर से शुरू करने पर विचार करने के लिए कहा। सीज़र मेमो एक प्रक्रिया मात्र नहीं है बल्कि यह एक सबूत है, पथ विक्रेताओं के होने का।

बेदख़ली का विरोध

बेदख़ली से लड़ाई में सबसे बुनियादी व सबसे आवश्यक है उस बेदख़ली का विरोध। यह विरोध कई तरीक़ों से किया जा सकता है व इसका कोई तय तरीक़ा नहीं है। इसके लिए आवश्यक है एक बुनियादी समझ का होना कि ‘भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (g) के अनुसार भारत की सीमा में कोई भी व्यवसाय कर सकते हैं।’ पथ विक्रय एक वैधानिक व्यवसाय है, जिसे विनियमित करने के लिए केंद्रीय क़ानून हैं, राज्य स्तर पर नियम व योजनाएँ हैं। इसलिए पथ विक्रेताओं द्वारा उनकी बेदख़ली का विरोध किया जाना ज़रूरी है व इस दौरान यह बात रखना भी कि क़ानून में तय किए गये प्रक्रियाओं को जल्द पूरा किया जाए। यह सब ना सिर्फ़ पथ विक्रेताओं के लिए बल्कि शहर की संरचनाओं, सड़कों, व आम नागरिकों के लिए भी आवश्यक है। पथ विक्रेताओं को विक्रय के अधिकार के साथ पुनर्वास का भी अधिकार है, अतः बिना वैकल्पिक व्यवस्था के बेदख़ली पर पूरी तरह प्रतिबंध होनी चाहिए। बेदख़ली के विरोध को एक सामाजिक लड़ाई के रूप में भी देखा जाना चाहिए व निरंतर मानव अधिकारों पर कार्य कर रही संस्थाओं, संगठनों व आंदोलनों को भी इसमें हिस्सेदारी देनी चाहिए।

वैधानिक कार्रवाई

बेदख़ली के विरोध व तमाम पैरवी के साथ महत्वपूर्ण है भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत पथ विक्रेताओं के अधिकार की संवैधानिक सुरक्षा के लिए वैधानिक कार्रवाई करना। प्रशासन द्वारा यदि तय प्रक्रिया पूरी किए बिना बेदख़ली की जाती है तो यह वैधानिक अपराध है व इसके विरुद्ध अदालत में याचिका दायर की जानी चाहिए। अदालत में क़ानून, नियम व योजनाओं के मुख्य दिशानिर्देश व प्रक्रियाओं पर बात रखी जाए और फ़ोर स्थानीय प्रशासन को उन सभी प्रक्रियाओं को पूरा करने के लिए बाध्य किया जाए। इसके साथ ही इस तरह के कार्रवाई के विरुद्ध मानव अधिकार आयोग में भी शिकायत की जाए कि किस तरह किसी पथ विक्रेता के जीविका के मानव अधिकार का उल्लंघन किया गया व इस पर कार्रवाई सुनिश्चित की जाए। हालाँकि अभी तक अदालत में दायर किसी भी याचिका में स्पष्ट रूप से स्थानीय प्रशासन पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी है लेकिन हमें यह प्रयास करते रहना चाहिए कि प्रशासनों की जवाबदेही तय हो।

उदाहरण के लिए दिल्ली में स्मार्ट सिटी परियोजना के अन्तर्गत नई दिल्ली नगर परिषद क्षेत्र में बसे कनौट प्लेस बाज़ार के इनर सर्कल में स्टील के बेंच लगाने का कार्य शुरू कर दिया गया। हालाँकि यह लोगों की सुविधा के लिए था परंतु इसके लिए वहाँ पर बसे पथ विक्रेताओं को हटा कर यह स्टील के बेंच लगाए जाने लगे। इसके विरोध में व एक सुनियोजित योजना बनाने के लिए इसकी शिकायत नगर परिषद के अध्यक्ष व निदेशक से की गयी। उन्होंने कहा कि यह आवश्यक है फिर इसके बारे में स्थानीय सांसद से की गयी, वहाँ से भी कोई जवाब नहीं आया। फिर शहरी विकास पर संसदीय समिति व शहरी मामले मंत्री को इसकी शिकायत की गयी साथ ही इसकी शिकायत दिल्ली के मुख्यमंत्री व शहरी विकास विभाग के मंत्री को भी किया गया। इस बार त्वरित कार्रवाई हुई व पथ विक्रेताओं को उसी क्षेत्र में वापस बैठने के लिए कहा गया व उन स्टील बेंच को लगाने की जगह बदल दी गयी।

प्रशासन बनाम पथ विक्रेता के दुष्प्रभाव

पथ विक्रेता क़ानून का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत यह है कि शहर के संचालन व पथ विक्रेताओं के विनियमन में पथ विक्रेता व प्रशासन एक समन्वय में कार्य करें। इसी लिए टाउन वेण्डिंग कमिटी (TVC) की अवधारणा रखी गयी जिसमें क़रीब 40% पथ विक्रेता होंगे, प्रशासन के होंगे जिसमें अलग अलग विभाग से प्रतिनिधि नामांकित किए जाएँगे, सामाजिक संस्था, बाज़ार समिति आदि से भी प्रतिनिधि रखे जाएँगे। जिससे कि सभी के मुद्दों पर चर्चा कर सुझाव लिए जाएँ व समस्याओं का समाधान निकाला जा सके। कुछ शहरों में ऐसा हुआ भी है जिसमें प्रशासन ने पहल करते हुए पथ विक्रेताओं से चर्चा कर समस्याओं को सुलझाया है व शहर में व्यवस्था ठीक हुई है लेकिन यह कुछ हैं, उदाहरण नहीं बन सकते हैं। उदाहरण तो यही है कि प्रशासन अभी भी पथ विक्रेताओं को अतिक्रमण समझती है, और उन पर कार्रवाई करती है। ऐसे में वह समन्वय हो ही नहीं पाता जिसकी परिकल्पना क़ानून में की गयी है। प्रशासन की कारवाई व पथ विक्रेताओं का विरोध के कारण यह स्थिति और भी गम्भीर हो जाती है व इसका नतीजा यह है कि ऐसे बहुत सारे पहल जो समन्वय से किए जा सकते थे सम्भव ही नहीं हो पाते। दुनिया भर में प्रशासन व पथ विक्रेताओं के समन्वय से शहरों को सुरक्षित, सुंदर व समावेशि बनाया गया है, नए उदाहरणों से, नए तरीक़ों से, एक दूसरे के सहयोग से। इसके लिए महत्वपूर्ण है कि प्रशासन प्रक्रियाओं पर ध्यान दे व पथ विक्रेताओं उन प्रक्रियाओं की पूर्णता पर। प्रतिस्पर्धा क़ानून को कमज़ोर कर देगी। समन्वय के लिए ज़रूरी है प्रशासन यह समझे कि पथ विक्रेताओं के भी अधिकार हो सकते हैं, क़ानून में उन्हें भी सुरक्षा मिल सकती है व सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि पथ विक्रेता भी TVC बैठकों में उनके लिए लिए जा रहे निर्णयों में भाग ले कर सुझाव दे सकते हैं, विरोध कर सकते हैं। पथ विक्रेताओं को यह समझना पड़ेगा कि विनियमन का मतलब उन पर पाबंदी नहीं है, व अधिकार पूर्णकालिक नहीं है इसलिए ज़रूरी है कि जिस क़ानून का सम्मान प्रशासन को करना चाहिए उसी क़ानून का सम्मान पथ विक्रेता भी करें।

बेदख़ली के विरुद्ध संघर्ष कब तक?

पथ विक्रेताओं के साथ उनके मुद्दे पर काम करने वाली सामाजिक संगठनें व संस्थाओं का वर्षों से संघर्ष पथ विक्रय को एक वैधानिक व कानूनी जीविका के विकल्प के रूप में स्थापित करना रहा है। वर्षों के संघर्ष के बाद पारित हुए इस क़ानून से यह तो सिद्ध हुआ लेकिन इसके आगे की लड़ाई बहुत ही मुश्किल है। अभी तक का संघर्ष पथ विक्रेताओं को बेदख़ली से बचाने का रहा है, पथ विक्रेताओं ने इसके विरुद्ध लम्बी लड़ाई लड़ी है, अब वह क़ानून के मुताबिक़ सर्वे, वेण्डिंग प्रमाण पत्र और वेण्डिंग ज़ोन की लड़ाई में है। इसके बावजूद वह जगह बचाने की बुनियादी लड़ाई जारी है। प्रश्न यह है कि जब असंगठित मज़दूरों के लिए सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य लाभ व न्यूनतम मज़दूरी जैसे क़ानून अमल में लाए जा रहे हों, उन पर बहस हो रही हो, व बात पंजीकरण से आगे जाकर इन लाभों को सुनिश्चित करने पार जा रही हो, तो पथ विक्रेताओं का संघर्ष बेदख़ली के विरोध तक ही सीमित क्यों रहे? उनका संघर्ष सामाजिक सुरक्षा, शारीरिक सुरक्षा, स्वास्थ्य लाभ, सामवेशि विकास, मास्टर प्लान में भागीदारी व अपने लिए योजनाओं के लिए लड़ाई करने तक क्यों ना पहुँचे। इसके लिए ज़रूरी है कि इन संस्थाओं व संगठनों की एक कड़ी को बेदख़ली के विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए व दूसरी कड़ी को सामाजिक सुरक्षा, योजना व स्वास्थ्य लाभ के लिए पैरवी। दोनों को एक साथ चलते रहना चाहिए व बेदख़ली के विरोधों में भी सामाजिक सुरक्षा व स्वास्थ्य लाभ शामिल हो व सामाजिक सुरक्षा की चर्चा में बेदख़ली पर प्रतिबंध की चर्चा शुरू हो।

ऐसी चर्चाओं के लिए पथ विक्रेताओं को इन मुद्दों पर काम करने वाली संस्थाएँ व संगठन के साथ जुड़ना ज़रूरी है। देश में कई संगठन व यूनियन पथ विक्रेताओं के मुद्दों पर काम करते हैं व उनके अधिकारों के लिए लगातार कार्यरत हैं। कई यूनियन पथ विक्रेता क़ानून को पारित व एक क़ानून बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके हैं। इसीलिए यह आवश्यक है कि जितने प्रयास इस मुद्दे को एक कानूनी जामा पहनाने में किए गया उससे कई गुना अधिक प्रयास इसे लागू करवाने व इसे पथ विक्रेताओं तक सही रूप से पहुँचाने में किया जाना है।

पथ विक्रेता क़ानून के लागू होने के बाद से एक तरफ़ जहाँ पथ विक्रेताओं को एक पहचान व कार्य का अधिकार मिला है वहीं इसके विपरीत अभी बहुत बड़े वर्ग को इस बारे में पता ही नहीं है, जिसकी वजह से स्थानीय प्रशासन लगातार उन्हें परेशान करती रही है। ज़रूरी है कि पथ विक्रेता क़ानून को जन जागरूकता का एक पैमाना बनाया जाए व सबसे पहले पथ विक्रेताओं और उसके बाद आम नागरिकों को भी इसके बारे में पूरी तरह जागरूक किया जाए।

अंकित झा, अर्बन प्रैक्टिशनर. यह लेख अंकित के युवा में काम पर आधारित है.

यह सड़क विक्रेताओं पर लिखे गए तीन भाग का पहला भाग है। भाग 2 के लिए यहां दबाएं और भाग 3 के लिए यहां दबाएं।

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